Monday, 24 March 2025

भगवान का निरंतर मानसिक स्मरण ही सबसे अच्छा सत्संग है ---

 सत्संग ---

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भगवान का निरंतर मानसिक स्मरण ही सबसे अच्छा सत्संग है। अपने इष्ट देवी/देवता को हर समय अपनी स्मृति में रखो, उन्हें सर्वत्र, व सब में उन्हीं को देख​ते हुए मानसिक रूप से उनका नाम-जप करते रहो। भगवान का स्मरण करते हुए धर्मग्रंथों का स्वाध्याय भी बहुत अच्छा सत्संग है। अच्छे विरक्त तपस्वी महात्माओं का आजकल सत्संग मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए सबसे अच्छा सत्संग तो भगवान के साथ ही है। भगवान स्वयं ही एकमात्र सत्य, यानि सत्य-नारायण हैं। भगवान का जो भी नाम-रूप हमें पसंद है, उसको सदा अपने चित्त में रखो। इससे अच्छा सत्संग कोई दूसरा नहीं है।
वासनाएँ बहुत अधिक शक्तिशाली हैं, जिनसे हम नहीं लड़ सकते। वासनाओं का प्रतिकार हम निरंतर सत्संग से ही कर सकते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् --
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है॥
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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यह एक ऐसा विषय है जिस पर कितना भी लिखते रहो, लेखनी रुक नहीं सकती। अतः यहीं पर लेखनी को विराम दे रहा हूँ। भगवान का संग ही सबसे अच्छा सत्संग है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ मार्च २०२४

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