"किसी भी परिस्थिति में हमें यज्ञ, दान व तप रूपी कर्मों को (यानि भक्ति व साधना को) नहीं छोडना चाहिए।"
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का यह स्पष्ट आदेश है --
"यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥१८:५॥"
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
अर्थात् -
यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप -- ये तीनों ही कर्म मनीषियों को पवित्र करनेवाले हैं।
हे पार्थ ! इन कर्मों को भी, फल और आसक्ति को त्यागकर करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
.
"मन लगे या न लगे, चाहे यंत्र की तरह ही करनी पड़े, किसी भी परिस्थिति में ईश्वर की भक्ति और साधना हमें नहीं छोड़नी चाहिए।
हमारी निष्काम साधना एक यज्ञ है, जिसमें हम अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) की आहुतियाँ भगवान को देते हैं। यज्ञों में स्वयं को भगवान ने जपयज्ञ बताया है। अतः किसी भी परिस्थिति में जपयज्ञ नहीं छोड़ना चाहिए। जो भी जितनी भी मात्रा में जप का संकल्प लिया है, उसे भगवान की प्रसन्नता के लिए करना ही चाहिए।
अपने सदविचारों से हम समष्टि का कल्याण करते हैं, यह बहुत बड़ा दान है।
इन सब के लिए जो प्रयास करते हैं, वह तप है।
कर्मफल और आसक्ति का त्याग ही वास्तविक त्याग है।
हमारी चेतना में हर समय केवल भगवान छाये रहें। सम्पूर्ण जीवन उन्हें समर्पित हो।
कितनी भी बार असफलता मिले, अपने प्रयास को छोड़ो मत। भगवान के पीछे ढीठ की तरह पड़े रहो। सफलता अवश्य मिलेगी।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३० मार्च २०२४
No comments:
Post a Comment