Wednesday, 13 November 2024

सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि हम हर समय भगवान का स्मरण करें ---

 सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि हम हर समय भगवान का स्मरण करें ---

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गीता में भगवान हमें हर समय निरंतर मूर्धा में अक्षरब्रह्म ओंकार के मानसिक जप का आदेश देते हैं। दांतों के ऊपरी भाग तालु से आज्ञाचक्र तक के भाग को मूर्धा कहते हैं।
गुरु की आज्ञा से हम आज्ञाचक्र में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का, और सहस्त्रारचक्र में गुरु-चरणों का अजपा-जप से निरंतर ध्यान करते हुए मूर्धा में ओंकार का श्रवण व जप भी निरंतर करते हैं। कुछ ऊर्जादायी व्यायाम और (शिवसंहितानुसार) महामुद्रा व कुछ प्राणायामों का अभ्यास भी करते हैं। तत्पश्चात् क्रिया, योनिमुद्रा, प्रार्थना, व जपयोग आदि का अभ्यास हमारी मुख्य साधना है। यही क्रियायोग है।
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बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य ने गार्गी को बताया है कि "अक्षरब्रह्म ओंकार ही परमात्मा है, जिसके अनुशासन में सूर्य और चंद्र स्थित हैं। श्रुतियों से जिसका वर्णन किया गया है जो कभी नष्ट नहीं होता वह परमात्मा ही ब्रह्म है।" (बृह. उ. ३/८/९)॥
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इसी बात को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है --
"अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८:३॥"
अर्थात् - परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व ब्रह्म है; स्वभाव (अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है; भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ, प्रेरक बल) कर्म नाम से जाना जाता है॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध (सांसारिक दायीत्व) करो। मुझ में अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
अर्थात् - सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक (मूर्धा) में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात् - जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
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अपने जीवन काल में उपरोक्त योगाभ्यास से ही हम राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार राग-द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व ही पुनर्जन्म का कारण है। (गीता ७:२७)॥ राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति हम उपरोक्त साधना से कर सकते हैं।
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आज का इतना ही सत्संग भगवत्-प्राप्ति के लिए पर्याप्त है। भगवान का ध्यान नित्य नियमित रूप से इसी समय से अवश्य करें। सभी का कल्याण होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२३

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