Wednesday, 13 November 2024

दुनियाँ की दिवाली तो देख ली, लेकिन मेरी स्वयं की दिवाली कब मनेगी? ---

 दुनियाँ की दिवाली तो देख ली, लेकिन मेरी स्वयं की दिवाली कब मनेगी?

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मेरी दिवाली तो उसी दिन मनेगी जिस दिन राम जी अपना डेरा स्थायी रूप से मेरे कूटस्थ हृदय में डाल देंगे। उसी दिन मेरी रामनवमी होगी, उसी दिन मेरी जन्माष्टमी मनेगी, और उसी दिन मेरे सारे त्योहार होंगे। अभी तो वे भी एक पर्यटक की तरह ही मेरे हृदय में आते हैं। मैं तो चाहता हूँ कि वे स्थायी रूप से यहीं रहें। आना तो उन्हें यहीं पड़ेगा, आज नहीं तो कल। प्रतीक्षा करेंगे।
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मुझे अनन्य-योग से एकत्वरूप उनकी अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए, जिसके लिए गीता में वे स्वयं कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
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इस समय तो जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। मेरे चारों ओर एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का ही है। हम अपने चारों ओर के परिदृश्य को अपने संकल्प से बदल सकते हैं, यदि हम परमात्मा के साथ एक हैं। यह संसार प्रकाश और अंधकार का खेल है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। प्रकाश के बिना अंधकार नहीं है, और अंधकार के बिना प्रकाश नहीं है। हम स्वयं प्रकाशमय होकर ही अंधकार को हटा सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है। अंधकार की शिकायत करने से अंधकार दूर नहीं होगा। हमें स्वयं ज्योतिर्मय होना होगा।
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परमात्मा के प्रकाश का निरंतर विस्तार ही परमधर्म है। यही जन-कल्याण का मार्ग है। परमात्मा के साथ एकत्व ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं। इससे अतिरिक्त अन्य सब अहंकार की यात्रा है। ध्यानस्थ होते ही मेरी चेतना सूक्ष्म जगत में चली जाती है। सूक्ष्म जगत के दृश्य ही दिखाई देते हैं। लगता है इस भौतिक जगत में मैं एक पर्यटक मात्र हूँ। यहाँ हम अपने पूर्व जन्मों के कर्मफलों को भोगने के लि​ये ही जन्म लेते हैं। हमारे विचार, संकल्प और कामनाएँ ही हमारे कर्म हैं जिनके फल भोगने के लिए हमारा पुनर्जन्म बार बार होता है।
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सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ और अभिनंदन !!
कृपा शंकर
१३ नवंबर २०२३

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