"द्वैत" और "अद्वैत" में कोई अंतर नहीं है ---
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यह मैं अपनी साधना की अनुभूतियों से कह रहा हूँ, अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से नहीं। जब तक "मैं" का अस्तित्व नहीं होता, तभी तक "अद्वैत" है, अन्यथा "द्वैत" सत्य है।
स्पष्ट शब्दों में -- "मैं" का विसर्जन ही अद्वैत है, और "मैं" का अस्तित्व -- द्वैत है।
केवल निर्विकल्प समाधि में ही अद्वैत-दर्शन सत्य है, सविकल्प समाधि में सब कुछ द्वैत है।
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"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता॥
हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का।
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता॥
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता॥"
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आचार्य गौड़पाद -- अद्वैत दर्शन के आचार्य हैं, और उनका ग्रंथ "मांडूक्यकारिका" इस विषय का प्रामाणिक ग्रंथ है। उनके शिष्य आचार्य गोविन्द भगवत्पाद के शिष्य आचार्य शंकर थे, जो एक परम भक्त और योगी थे। उन्होने सभी देवी-देवताओं की स्तुतियाँ लिखी हैं, और स्वयं भगवती ललिता महात्रिपुरसुंदरी के उपासक थे। उन्होने "सौन्दर्य लहरी" नामक ग्रंथ की रचना की जो तंत्र विद्या के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में से एक है। उनकी परंपरा के लगभग सारे दण्डी स्वामी श्रीविद्या (भगवती ललिता महात्रिपुरसुंदरी) की उपासना करते हैं। कुछ अपवाद भी हैं जो भगवती छिन्नमस्ता के उपासक हैं। अतः किसी विवाद में न पड़ें। द्वैत और अद्वैत दोनों ही सत्य हैं। नाथ संप्रदाय के अनेक सिद्ध योगी भी भगवती श्रीविद्या की उपासना करते हैं, लेकिन वे स्वयं को शिव का उपासक बताते हैं।
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"सिन्दूरारुण विग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलि स्फुरत्
तारा नायक शेखरां स्मितमुखी मापीन वक्षोरुहाम्।
पाणिभ्यामलिपूर्ण रत्न चषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं
सौम्यां रत्न घटस्थ रक्तचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम्॥"
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पुनश्च: --- मैं साधना तो अद्वैत परमशिव की ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप में करता हूँ, लेकिन भगवती कुंडलिनी की अनुभूति कहती है कि द्वैत भी सत्य है। अनेक बार भगवती का अपने विराटतम रूप में प्रत्यक्ष होना कहता है कि द्वैत भी सत्य है।
ॐ तत्सत् ! ॐ
कृपा शंकर
१३ नवंबर २०२४
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