Wednesday, 28 July 2021

आत्माराम ---

 

🌹आत्माराम ---
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सरल से सरल भाषा में "आत्माराम" से ऊँची या बड़ी कोई अवस्था नहीं है। जो आत्माराम हो गया, उसके लिए संसार में करने योग्य अब कुछ भी नहीं है। उसने सब कुछ पा लिया है, और वह ऊँची से ऊँची अवस्था में है। उसने भगवान को भी पा लिया है। ऐसे आत्माराम -- पृथ्वी के देवता हैं। उन्हीं से यह भूमि पवित्र है। "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा मंत्र है --
"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।"
यहाँ देवर्षि नारद जी ने भक्त की तीन अवस्थाएँ बताई हैं। ईश्वर की अनुभूति पाकर भक्त पहिले तो "मत्त" हो जाता है, फिर "स्तब्ध" हो जाता है, और फिर "आत्माराम" हो जाता है, यानि अपनी आत्मा में रमण करने लगता है। आत्मा में रमण करते-करते वह स्वयं परमात्मा के साथ एक हो जाता है।
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"शाण्डिल्य सूत्र" के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। जो भी अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता।
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जहाँ तक मुझ अल्पज्ञ की सीमित सोच है -- आत्म-तत्व का साक्षात्कार ही आत्माराम होना है। खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में कूटस्थ पर ध्यान करने से प्राण-तत्व की चंचलता कम होती है, मन पर नियंत्रण होता है, और आत्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूतियाँ होती हैं। उस सर्वव्यापक आत्मा से एकाकार होना ही आत्म-तत्व में रमण, यानि आत्माराम होना है।
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मेरी अत्यल्प व सीमित बुद्धि के अनुसार -- क्रिया-प्राणायाम व ध्यान के पश्चात योनिमुद्रा में जिस ज्योति के दर्शन होते हैं, वह ज्योति - ईश्वर का रूप है। उस ज्योति के स्वभाविक रूप से निरंतर दर्शन, और उसके साथ-साथ सुनाई देने वाले प्रणव-नाद का निरंतर स्वभाविक रूप से श्रवण, व उन्हीं की संयुक्त चेतना में रहना "कूटस्थ चैतन्य" व "ब्राह्मी-स्थिति" है। यह भी "आत्माराम" होना है।
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देवर्षि नारद के गुरु थे भगवान सनतकुमार, जिन्हें ब्रह्मविद्या का प्रथम आचार्य माना जाता है; क्योंकि ब्रह्मविद्या का ज्ञान उन्होने सर्वप्रथम अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। भगवान सनतकुमार ने प्रमाद को मृत्यु और अप्रमाद को अमृत कहा है (महाभारत उद्योगपर्व, सनत्सुजातपर्व अध्याय ४२)। प्रमादी व्यक्ति कभी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें भक्ति का उदय नहीं होता। अतः भक्ति में प्रमाद (आलस्य और दीर्घसूत्रता) नहीं आना चाहिए।
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परमात्मा से प्रेम करो, और अधिक प्रेम करो, और, और भी अधिक प्रेम करो। इतना अधिक प्रेम करो कि स्वयं प्रेममय हो जाओ। यही परमात्मा की प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा का साक्षात्कार है, और यही आत्माराम होने की स्थिति है। अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दो और परमात्मा के साथ एक हो जाओ। प्रेममय होकर हम स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। परमात्मा में और हमारे में कहीं कोई भेद नहीं है। यही वह स्थिति है जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
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चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, पूरा आसमान नीचे गिर जाये, पूरी धरती महाप्रलय के जल में डूब जाये, और यह शरीर जल कर भस्म हो जाये, लेकिन परमात्मा को हम कभी नहीं भूलेंगे और निरंतर सदा उनसे प्रेम करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२१

2 comments:

  1. जैसे सारी नदियाँ महासागर में गिरती हैं, वैसे ही हमारे सारे विचार भगवान तक पहुँचते हैं। हमारा हर विचार हमारा कर्म है, जिसका फल मिले बिना नहीं रहता।
    भगवान् से प्रेम करेंगे तो उनकी सृष्टि भी हमसे प्रेम करेगी। जैसा हम सोचेंगे, वैसा ही वही कई गुणा बढ़कर हमें मिलेगा।
    सब में सब के प्रति प्रेमभाव हो, यही मेरी प्रार्थना भगवान से है। ॐ ॐ ॐ !!

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  2. 🌹 योग क्या है?
    🌹🌹 परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही योग है।
    🌹🌹🌹 मेरा हर विचार परमात्मा को समर्पित है।
    🌹🌹🌹🌹यही मेरा योग है| ॐ ॐ ॐ !!

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