मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा ..... "हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों?"
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जिस ने भी मनुष्य देह में जन्म लिया है, चाहे वह घोर से घोर नास्तिक हो, उसे जीवन में एक न एक बार तो यह जिज्ञासा अवश्य ही होती है कि यदि परमात्मा है तो उन्हें कौन, व कैसे पा सकता है? यह मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसका बड़ा सुंदर उत्तर दिया है ....
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः| निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव||११:५५||"
अर्थात् "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है||"
गीता में भगवान दो बार कहते हैं ... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु"....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
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आचार्य शंकर व आचार्य रामानुज जैसे स्वनामधन्य परम विद्यावान अनेक महान आचार्यों ने गीता की बड़ी सुंदर व्याख्याएँ की हैं| मुझ अकिंचन की तो उनके समक्ष कोई औकात ही नहीं है| मैंने अर्थ समझने का प्रयास ही छोड़ दिया है, क्योंकि यह मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| मेरे हृदय में परमात्मा जो बैठे हैं, उन्हें ही पता है कि उन के मन में क्या है, अतः मुझे उनके शब्दों से नहीं, उन से ही प्रेम है| वे हृदयस्थ परमात्मा सदा मेरे समक्ष रहें, और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए|
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सार की बात है .... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु|" परमात्मा से प्रेम ही सब कुछ है| वे ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, वे ही हमारे एकमात्र मित्र हैं, और उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते| हम अपना हर कर्म उन की प्रसन्नता के लिए, उन्हें ही कर्ता बनाकर करें|
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प्रेम एक स्थिति है, कोई क्रिया नहीं| यह हो जाता है, किया नहीं जाता| परमात्मा से परमप्रेम .... आत्मसाक्षात्कार का द्वार है| आत्मसाक्षात्कार सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं| परमात्मा से परमप्रेम होना परमात्मा की परमकृपा है जो हमारा परमकल्याण कर सकती है| वे हमारे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं, उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते|
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मैं क्षमायाचना सहित कुछ जटिल व कठिन शब्दों का प्रयोग करता हूँ क्योंकि हृदय के भाव उन्हीं से व्यक्त होते हैं| मेरा शब्दकोष बहुत सीमित है, अपने आध्यात्मिक भावों को सरल भाषा में व्यक्त करने की कला मुझे नहीं आती| महात्माओं के सत्संग से जानी हुई सार की बात है कि जिस की बुद्धि हेय-उपादेय है वह अहेय-अनुपादेय ब्रह्मतत्त्व को नहीं पा सकता| जो अहेय-अनुपादेय परमार्थतत्त्व को पाना चाहता है, वह हेय-उपादेय दृष्टि नहीं कर सकता| हम भगवान से प्रेम की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति करते हुए अपना कर्म करते रहें पर किसी से घृणा न करें| घृणा करने वाला व्यक्ति, आसुरी शक्तियों का शिकार हो जाता है|
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परमात्मा से प्रेम के विचार ही मेरी तीर्थयात्रा है| भगवान से प्रेम ही सबसे बड़ा तीर्थ है| वे हमारे प्रेम को अपनी पूर्णता दें| उन की और आप सब की जय हो|
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२२ फरवरी २०२०
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पुनश्च: :---- 'हेय' का अर्थ होता है ....'अवलंबन योग्य नहीं'| जो हेय है वह लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य तो कुछ और ही है| 'उपादेय' का अर्थ होता है .... 'अवलम्बन योग्य है'| उपादेय की प्राप्ति करनी है तो जो हेय है उसे पकड़े नहीं रहना है, अन्यथा लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| जैसे खड्डे से निकलने के लिए रस्सी का सहारा लें और उस रस्सी को पकड़ें ही रहें तो बाहर निकलने का लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| यदि बाहर निकलना है तो रस्सी को अंततः छोड़ना ही होगा| किन्तु यदि पहले ही छोड़ दिया जाए तो कोई बाहर नहीं आ सकेगा| यहाँ रस्सी हमें बाहर नहीं निकालती, निकलते तो हम स्वयं के पुरुषार्थ से हैं| रस्सी तो मात्र हमारे पुरुषार्थ की सहचर है| वैसे ही सारे साधन व साधनायें हमारी सहचरी हैं, जिनका परित्याग लक्ष्य प्राप्ति पर करना ही पड़ता है| वैसे ही गुरु-तत्व भी मात्र सहचर है, लक्ष्य नहीं| गुरु-तत्व के बिना ज्ञान नहीं होता, पर गुरु जी को पकड़े रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, स्वयं को ही पुरुषार्थ करना होगा| गुरुजी तो मात्र सहचर हैं, जो अंततः स्वयं ही चले जाएँगे|
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जिस ने भी मनुष्य देह में जन्म लिया है, चाहे वह घोर से घोर नास्तिक हो, उसे जीवन में एक न एक बार तो यह जिज्ञासा अवश्य ही होती है कि यदि परमात्मा है तो उन्हें कौन, व कैसे पा सकता है? यह मनुष्य जीवन की शाश्वत जिज्ञासा है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसका बड़ा सुंदर उत्तर दिया है ....
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः| निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव||११:५५||"
अर्थात् "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है||"
गीता में भगवान दो बार कहते हैं ... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु"....
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
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आचार्य शंकर व आचार्य रामानुज जैसे स्वनामधन्य परम विद्यावान अनेक महान आचार्यों ने गीता की बड़ी सुंदर व्याख्याएँ की हैं| मुझ अकिंचन की तो उनके समक्ष कोई औकात ही नहीं है| मैंने अर्थ समझने का प्रयास ही छोड़ दिया है, क्योंकि यह मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| मेरे हृदय में परमात्मा जो बैठे हैं, उन्हें ही पता है कि उन के मन में क्या है, अतः मुझे उनके शब्दों से नहीं, उन से ही प्रेम है| वे हृदयस्थ परमात्मा सदा मेरे समक्ष रहें, और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए|
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सार की बात है .... "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु|" परमात्मा से प्रेम ही सब कुछ है| वे ही हमारे एकमात्र सम्बन्धी हैं, वे ही हमारे एकमात्र मित्र हैं, और उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते| हम अपना हर कर्म उन की प्रसन्नता के लिए, उन्हें ही कर्ता बनाकर करें|
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प्रेम एक स्थिति है, कोई क्रिया नहीं| यह हो जाता है, किया नहीं जाता| परमात्मा से परमप्रेम .... आत्मसाक्षात्कार का द्वार है| आत्मसाक्षात्कार सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं| परमात्मा से परमप्रेम होना परमात्मा की परमकृपा है जो हमारा परमकल्याण कर सकती है| वे हमारे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं, उन में तन्मयता ही हमारा जीवन है| वे हमारे इतने समीप हैं की हम उनका बोध नहीं कर पाते|
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मैं क्षमायाचना सहित कुछ जटिल व कठिन शब्दों का प्रयोग करता हूँ क्योंकि हृदय के भाव उन्हीं से व्यक्त होते हैं| मेरा शब्दकोष बहुत सीमित है, अपने आध्यात्मिक भावों को सरल भाषा में व्यक्त करने की कला मुझे नहीं आती| महात्माओं के सत्संग से जानी हुई सार की बात है कि जिस की बुद्धि हेय-उपादेय है वह अहेय-अनुपादेय ब्रह्मतत्त्व को नहीं पा सकता| जो अहेय-अनुपादेय परमार्थतत्त्व को पाना चाहता है, वह हेय-उपादेय दृष्टि नहीं कर सकता| हम भगवान से प्रेम की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति करते हुए अपना कर्म करते रहें पर किसी से घृणा न करें| घृणा करने वाला व्यक्ति, आसुरी शक्तियों का शिकार हो जाता है|
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परमात्मा से प्रेम के विचार ही मेरी तीर्थयात्रा है| भगवान से प्रेम ही सबसे बड़ा तीर्थ है| वे हमारे प्रेम को अपनी पूर्णता दें| उन की और आप सब की जय हो|
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
२२ फरवरी २०२०
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पुनश्च: :---- 'हेय' का अर्थ होता है ....'अवलंबन योग्य नहीं'| जो हेय है वह लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य तो कुछ और ही है| 'उपादेय' का अर्थ होता है .... 'अवलम्बन योग्य है'| उपादेय की प्राप्ति करनी है तो जो हेय है उसे पकड़े नहीं रहना है, अन्यथा लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| जैसे खड्डे से निकलने के लिए रस्सी का सहारा लें और उस रस्सी को पकड़ें ही रहें तो बाहर निकलने का लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा| यदि बाहर निकलना है तो रस्सी को अंततः छोड़ना ही होगा| किन्तु यदि पहले ही छोड़ दिया जाए तो कोई बाहर नहीं आ सकेगा| यहाँ रस्सी हमें बाहर नहीं निकालती, निकलते तो हम स्वयं के पुरुषार्थ से हैं| रस्सी तो मात्र हमारे पुरुषार्थ की सहचर है| वैसे ही सारे साधन व साधनायें हमारी सहचरी हैं, जिनका परित्याग लक्ष्य प्राप्ति पर करना ही पड़ता है| वैसे ही गुरु-तत्व भी मात्र सहचर है, लक्ष्य नहीं| गुरु-तत्व के बिना ज्ञान नहीं होता, पर गुरु जी को पकड़े रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, स्वयं को ही पुरुषार्थ करना होगा| गुरुजी तो मात्र सहचर हैं, जो अंततः स्वयं ही चले जाएँगे|
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