आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... (१) कालरात्रि (दीपावली), (२) महारात्रि (महाशिवरात्रि), (३) मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और (४) दारुण रात्रि (होली)| इन रात्रियों को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए| भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना तो नित्य ही अवश्य करनी चाहिए| आत्म-विस्मृति सब दुःखों का कारण है| इन रात्रियों को अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान यथासंभव अधिकाधिक करें| इन रात्रियों में सुषुम्ना नाड़ी में प्राण-प्रवाह अति प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से की गई साधना निश्चित रूप से सफल होती है| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक ब्रह्मशक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग का कुछ स्वाध्याय कर लेते हैं| भगवान कहते हैं ....
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग का कुछ स्वाध्याय कर लेते हैं| भगवान कहते हैं ....
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।
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तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्| स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा||६:२३||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे।
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सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः| मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||६:२४||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे।
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शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् | उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ||६:२७||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः| सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते||६:२८||
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||६:३१||
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है |
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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन| सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः||६:३२||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये।
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आप सब को नमन और महाशिवरात्रि व होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०२०
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।
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तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्| स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा||६:२३||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे।
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सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः| मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||६:२४||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे।
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शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् | उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ||६:२७||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः| सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते||६:२८||
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||६:३१||
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है |
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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन| सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः||६:३२||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये।
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आप सब को नमन और महाशिवरात्रि व होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०२०
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