भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे पृथक हो ही नहीं सकते .....
-----------------------------------------------------------------
भगवान के बारे में मनीषी कहते हैं कि वे अचिंत्य और अगम्य हैं, पर मैं इसे नहीं मानता| वे तो निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| जिनका साथ शाश्वत है वे कभी अगम्य और अचिंत्य नहीं हो सकते| यहाँ पर मैं न तो वेदान्त की भाषा का प्रयोग करूँगा और न ही दार्शनिकों की भाषा का| जो मेरे हृदय की भाषा है वही लिख रहा हूँ| यहाँ मैं एक ईर्ष्यालु प्रेमी हूँ क्योंकि भगवान स्वयं भी ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| भगवान पर मेरा एकाधिकार है जिस पर मेरा पेटेंट भी है| उनके सिवाय मेरा अन्य कोई नहीं है अतः वे सदा के लिए मेरे हृदय में बंदी हैं| मैं नहीं चाहता कि वे मेरे हृदय को छोड़कर कहीं अन्यत्र जायें, इसलिए मैंने उनके बाहर नहीं निकलने के पुख्ता इंतजाम कर दिये हैं| वे बाहर निकल ही नहीं सकते चाहे वे कितने भी शक्तिमान हों| चाहे जितना ज़ोर लगा लें, उनकी शक्ति यहाँ नहीं चल सकती|
.
भगवान करुणा और प्रेमवश हमें अपनी अनुभूति करा ही देते हैं| हमें तो सिर्फ पात्रता ही जागृत करनी पड़ती है| पात्रता होते ही वे गुरुरूप में आते हैं और अपने प्रेमी की साधना का भार भी अपने ऊपर ही ले लेते हैं| उन्होने इसका वचन भी दे रखा है| जब भी परम प्रेम की अनुभूति हो, तब उस अनुभूति को संजो कर रखें| यहाँ भगवान अपने परमप्रेमरूप में आए हैं| उनके इस परमप्रेमरूप का ध्यान सदा रखें| इस दिव्य प्रेम का ध्यान रखते रखते हम स्वयं भी प्रेममय और आनंदमय हो जाएँगे|
.
योगियों को भगवान की अनुभूति प्राण-तत्व के द्वारा परमप्रेम और आनंद के रूप में होती है| यह प्राण तत्व ही विस्तृत होते होते आकाश तत्व हो जाता है| आकाश तत्व प्राण का ही विस्तृत रूप है| प्राण का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है, और यह एक राजकुमारी की तरह शनैः शनैः बड़े शान से उठती उठती सुषुम्ना के सभी चक्रों को भेदती हुई ब्रह्मरंध्र से भी परे अनंत परमाकाश में स्वतः ही परमशिव से मिल जाती है, जो योगमार्ग की परमसिद्धि है| गुरु के आदेशानुसार शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते जब ब्रहमज्योति प्रकट होती है, तब उसमें लिपटी हुई अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है| नाद व ज्योति दोनों ही कूटस्थ ब्रह्म हैं जिनका ध्यान सदा योगी साधक करते हैं| यहाँ भी करुणावश भगवान स्वयं ही साधना करते हैं, हम नहीं| साधक होने का भाव एक भ्रम ही है|
.
भगवान कण भी है और प्रवाह भी| स्पंदन भी वे हैं और आवृति भी| वे ही नाद हैं और बिन्दु भी| वास्तव में उनके सिवाय अन्य कोई है भी नहीं| अतः वे कैसे अचिंत्य और अगम्य हो सकते हैं? अपने प्रेमियों के समक्ष तो वे नित्य ही निरंतर रहते हैं| उनके प्रति प्रेम जागृत हो जाने का अर्थ है कि हमने उन्हें पा लिया है| निरंतर उनके प्रेम में मग्न रहो| हम भगवान के साथ एक हैं| वे हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं और सर्वदा हमारे साथ एक हैं|
.
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२२ जनवरी २०२०
-----------------------------------------------------------------
भगवान के बारे में मनीषी कहते हैं कि वे अचिंत्य और अगम्य हैं, पर मैं इसे नहीं मानता| वे तो निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| जिनका साथ शाश्वत है वे कभी अगम्य और अचिंत्य नहीं हो सकते| यहाँ पर मैं न तो वेदान्त की भाषा का प्रयोग करूँगा और न ही दार्शनिकों की भाषा का| जो मेरे हृदय की भाषा है वही लिख रहा हूँ| यहाँ मैं एक ईर्ष्यालु प्रेमी हूँ क्योंकि भगवान स्वयं भी ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| भगवान पर मेरा एकाधिकार है जिस पर मेरा पेटेंट भी है| उनके सिवाय मेरा अन्य कोई नहीं है अतः वे सदा के लिए मेरे हृदय में बंदी हैं| मैं नहीं चाहता कि वे मेरे हृदय को छोड़कर कहीं अन्यत्र जायें, इसलिए मैंने उनके बाहर नहीं निकलने के पुख्ता इंतजाम कर दिये हैं| वे बाहर निकल ही नहीं सकते चाहे वे कितने भी शक्तिमान हों| चाहे जितना ज़ोर लगा लें, उनकी शक्ति यहाँ नहीं चल सकती|
.
भगवान करुणा और प्रेमवश हमें अपनी अनुभूति करा ही देते हैं| हमें तो सिर्फ पात्रता ही जागृत करनी पड़ती है| पात्रता होते ही वे गुरुरूप में आते हैं और अपने प्रेमी की साधना का भार भी अपने ऊपर ही ले लेते हैं| उन्होने इसका वचन भी दे रखा है| जब भी परम प्रेम की अनुभूति हो, तब उस अनुभूति को संजो कर रखें| यहाँ भगवान अपने परमप्रेमरूप में आए हैं| उनके इस परमप्रेमरूप का ध्यान सदा रखें| इस दिव्य प्रेम का ध्यान रखते रखते हम स्वयं भी प्रेममय और आनंदमय हो जाएँगे|
.
योगियों को भगवान की अनुभूति प्राण-तत्व के द्वारा परमप्रेम और आनंद के रूप में होती है| यह प्राण तत्व ही विस्तृत होते होते आकाश तत्व हो जाता है| आकाश तत्व प्राण का ही विस्तृत रूप है| प्राण का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है, और यह एक राजकुमारी की तरह शनैः शनैः बड़े शान से उठती उठती सुषुम्ना के सभी चक्रों को भेदती हुई ब्रह्मरंध्र से भी परे अनंत परमाकाश में स्वतः ही परमशिव से मिल जाती है, जो योगमार्ग की परमसिद्धि है| गुरु के आदेशानुसार शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते जब ब्रहमज्योति प्रकट होती है, तब उसमें लिपटी हुई अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है| नाद व ज्योति दोनों ही कूटस्थ ब्रह्म हैं जिनका ध्यान सदा योगी साधक करते हैं| यहाँ भी करुणावश भगवान स्वयं ही साधना करते हैं, हम नहीं| साधक होने का भाव एक भ्रम ही है|
.
भगवान कण भी है और प्रवाह भी| स्पंदन भी वे हैं और आवृति भी| वे ही नाद हैं और बिन्दु भी| वास्तव में उनके सिवाय अन्य कोई है भी नहीं| अतः वे कैसे अचिंत्य और अगम्य हो सकते हैं? अपने प्रेमियों के समक्ष तो वे नित्य ही निरंतर रहते हैं| उनके प्रति प्रेम जागृत हो जाने का अर्थ है कि हमने उन्हें पा लिया है| निरंतर उनके प्रेम में मग्न रहो| हम भगवान के साथ एक हैं| वे हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं और सर्वदा हमारे साथ एक हैं|
.
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२२ जनवरी २०२०
No comments:
Post a Comment