Friday, 4 August 2017

हे मन .....

हे मन .....
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हे मन, तूँ दौड़ता हुआ कहाँ तक कहाँ कहाँ जाएगा ? जहाँ भी तूँ जाएगा वहीं आत्म तत्व के रूप में मैं स्थित हूँ| मुझ ब्रह्म से अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा है ही नहीं| याद रख आत्मा के सिवाय कोई अनात्मा नहीं है| तुम्हारी गति मुझ से बाहर नहीं है| अतः तूँ शांत हो और चुपचाप बैठ कर मेरा ही स्मरण चिंतन कर| यह मेरा आदेश है जिसे मानने को तूँ बाध्य है| ॐ ॐ ॐ ||
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हे मन, याद रख यह मोह महा क्लेश है, जिस पर तूँ मोहित है, वह तो है ही नहीं| इस मोह और राग-द्वेष का अस्तित्व निद्रा में एक स्वप्न मात्र था| क्या तो राग, और क्या द्वेष ? आत्म-तत्व के रूप में सर्वत्र ब्रह्म मैं ही हूँ| अतः निरंतर मेरा ही स्मरण चिंतन कर| मेरी जीवनमुक्त ब्रह्मभूतता का निरंतर अनुभव कर| ॐ ॐ ॐ ||
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शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि || ॐ ॐ ॐ ||

1 comment:

  1. दोनों कानों को बंद करने पर जो ध्वनि सुनाई देती है, वह प्राण और अपान के संयोग से उत्पन्न जाठर अग्नि वैश्वानर की ध्वनी है| तेलधारा की तरह अटूट अक्षुण्ण रूप से इसे सुनते हुए गुरु प्रदत्त बीजमन्त्र का यथासंभव मानसिक जप महामोक्षदायी है| इसकी महिमा अनंत है जो शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकती| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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