अहंकारवृत्ति नहीं, बल्कि परमात्मा ही हमारा स्वरुप है .....
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साधना में जहाँ भी अशक्तता, विवशता, जड़ता, अक्षमता और अहंकार आदि आ जाएँ तो उनका भी सकारात्मक विकल्प है| गुरु महाराज से प्रार्थना कीजिये, उनके पास इसका निश्चित समाधान है|
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जितनी साधना हम स्वयं के लिए करते हैं, उतनी ही गुरु महाराज भी हमारे लिए ही करते हैं| फिर दोनों मिलकर जितनी साधना करते हैं, उतनी ही हमारे लिए भगवान स्वयं भी करते हैं|
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गुरु महाराज से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से कर्ताभाव और कर्मफल दोनों उन्हीं को समर्पित कर देने में ही सार्थकता है| तभी सफलता मिलेगी| .
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अहंकारवृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, मैं यह करूँगा, वह करूँगा, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है| सही सोच तो यह है कि .... भगवान ने मेरे माध्यम से यह सब किया है, मैं तो निमित्त मात्र था| जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| उससे पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है|
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साधना में जहाँ भी अशक्तता, विवशता, जड़ता, अक्षमता और अहंकार आदि आ जाएँ तो उनका भी सकारात्मक विकल्प है| गुरु महाराज से प्रार्थना कीजिये, उनके पास इसका निश्चित समाधान है|
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जितनी साधना हम स्वयं के लिए करते हैं, उतनी ही गुरु महाराज भी हमारे लिए ही करते हैं| फिर दोनों मिलकर जितनी साधना करते हैं, उतनी ही हमारे लिए भगवान स्वयं भी करते हैं|
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गुरु महाराज से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से कर्ताभाव और कर्मफल दोनों उन्हीं को समर्पित कर देने में ही सार्थकता है| तभी सफलता मिलेगी| .
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अहंकारवृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, मैं यह करूँगा, वह करूँगा, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है| सही सोच तो यह है कि .... भगवान ने मेरे माध्यम से यह सब किया है, मैं तो निमित्त मात्र था| जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| उससे पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है|
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परमात्मा की परोक्षता और स्वयं की परिछिन्नता को मिटाने का एक ही उपाय है ... परमात्मा का ध्यान|
परम प्रेम और ध्यान से पराभक्ति प्राप्त होती है और ज्ञान में निष्ठा होती है, जो एक उच्चतम स्थिति है, जहाँ तक पहुँचते पहुँचते सब कुछ निवृत हो जाता है, और त्याग करने को भी कुछ अवशिष्ट नहीं रहता|
यह धर्म और अधर्म से परे की स्थिति है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
परम प्रेम और ध्यान से पराभक्ति प्राप्त होती है और ज्ञान में निष्ठा होती है, जो एक उच्चतम स्थिति है, जहाँ तक पहुँचते पहुँचते सब कुछ निवृत हो जाता है, और त्याग करने को भी कुछ अवशिष्ट नहीं रहता|
यह धर्म और अधर्म से परे की स्थिति है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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