आजकल लोगों की जैसी सोच है, उसमें मैं स्वयं को इस संसार के लिए अनुपयुक्त (Misfit) पाता हूँ।
मेरी स्वभाविक रुचि -- ब्रह्म-चिंतन यानि परमात्मा के चिंतन मनन निदिध्यासन और ध्यान आदि में है। सच्चिदानंद की चेतना का स्वयं में अवतरण व विलय ही मेरी उपासना और आनंद है। गुरु महाराज ने और अन्य महापुरुषों ने क्या कहा है, उनके शब्दों का अब कोई महत्व नहीं रहा है। महत्व उनकी चेतना का है। वे चेतना की जिस स्थिति में थे, उस चेतना में स्थिति ही मेरी रुचि का विषय है। शेष जीवन इसी में व्यतीत हो जाये। सोशियल मीडिया से मन भर गया है। किसी भी तरह का मोक्ष या मुक्ति नहीं चाहिये। हर जन्म में ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो।
संसार में जिसे हम पाना चाहते हैं और ढूँढ़ रहे हैं, वह हम स्वयं हैं। कुछ पाने की अवधारणा मिथ्या है। हम कुछ बन सकते हैं, पा नहीं सकते। परमात्मा को पाने के लिए हमें स्वयं परमात्मा बनना पड़ेगा। ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२५
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