परमात्मा का निज जीवन में अवतरण ही धर्म है। स्वर्ग एक प्रलोभन, और नर्क एक भय है ---
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परमात्मा का निज जीवन में अवतरण ही धर्म है, और जीवन में परमात्मा का न होना अधर्म है। यही सनातन सत्य है, जिसके अपरिवर्तनीय नियमों के अंतर्गत सारी सृष्टि चल रही है। इसी को सत्य-सनातन-धर्म कहते हैं। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तित होकर दैवीय या आसुरी हो सकता है, मनुष्य अधर्मी हो सकता है, धर्म-विरुद्ध होकर विधर्मी हो सकता है, पर धर्म कभी परिवर्तित नहीं हो सकता। धर्म एक ही है जो अपरिवर्तनीय है।
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परमात्मा ही एकमात्र सत्य है, जिसका अंश होने से आत्मा भी सत्य है जिसका नाश नहीं हो सकता। आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु उड़ा नहीं सकती, आकाश अपने में विलय नहीं कर सकता, और कोई भी पंचभूत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अतः कोई आत्मा कभी धर्मभ्रष्ट नहीं हो सकती। यह हो सकता है कि आत्मा पर अज्ञान का आवरण छा जाये, लेकिन धर्म कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता।
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जीवन का लक्ष्य कोई इन्द्रीय सुखों कि प्राप्ति नहीं है। इन्द्रीय सुख उस मधु की तरह हैं जिसमें विष घुला हुआ है। जीवन का लक्ष्य किसी स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं है, जहाँ कोई पूर्णता व तृप्ति नहीं, केवल पतन ही पतन है। आत्म-तत्व यानि परमात्मा में स्थिति ही हमारा एकमात्र परम धर्म है, अन्य सब इसी का विस्तार है। यही जीवन कि सार्थकता है। स्वर्ग एक प्रलोभन, और नर्क एक भय है। ईश्वर ही एकमात्र सत्य है।
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मत- मतान्तरों को "धर्म" से न जोड़िये। धर्म इतना व्यापक है कि उसे मत-मतान्तरों में सीमित नहीं किया जा सकता। हम किसी मत विशेष को धर्म मान लेते हैं, यहीं से सब समस्याओं का आरम्भ होता है। धर्म एक ही है, अनेक नहीं। कणाद ऋषि ने धर्म को "यथोअभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिसधर्मः" परिभाषित किया है। हम मत-मतान्तरों को ही धर्म मान लेते हैं जो गलत है। हम मनुष्य नहीं बल्कि शाश्वत आत्मा हैं। मनुष्य देह एक वाहन मात्र है जो इस लोकयात्रा के लिये मिला है। यह एक मोटर साइकिल की तरह है, जिस पर कुछ काल के लिए यात्रा कर रहे हैं। मानवतावाद नाम का कोई शब्द हमारे शास्त्रों में नहीं है। हमारे शास्त्रों में समष्टि के कल्याण की बात की गयी है, न कि व्यष्टि यानि मनुष्य मात्र के कल्याण की।
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जीवन में 'धर्म' तभी साकार हो सकता है जब हमारे ह्रदय में परमात्मा हो। मनु-स्मृति में मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं --
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥"
धृति (धैर्य), क्षमा (क्षमाशील होना), दम (वासनाओं पर नियन्त्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये धर्म के दस लक्षण हैं जिन्हें धारण करना ही धर्म है। जहाँ ये नहीं हैं, वहाँ अधर्म है।
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०२५
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