Tuesday, 17 June 2025

जब मृत्यु को हम अपने समक्ष खड़ा पायें, तब क्या करे? ---

 राजा परीक्षित भाग्यशाली था जिसे शुकदेव जैसे आचार्य मिले। सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते। यह जानने की मेरी रुचि नहीं है कि मृत्यु के बाद क्या होता है। उस समय तो कुछ भी हमारे नियंत्रण में नहीं होता। जो होना है सो हमारे कर्मफलानुसार ही होता है। अतः यह प्रश्न ही असंगत है।

असली यानि सही प्रश्न तो यह है कि जब मृत्यु के देवता प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने खड़े हों, तब हम क्या करें? उस क्षण के लिए जीवन भर एक दीर्घकाल तक तैयारी करनी पड़ती है।
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पूर्ण भक्ति से भगवान में स्वयं का समर्पण करने की साधना तो नियमित रूप से करनी ही चाहिये। भगवान में स्वयं को समर्पित करने से अधिक हम कुछ भी नहीं कर सकते। फिर तो यह भगवान के हाथ में है कि वे हमें ठुकरा दें या प्यार करें। संकट के समय मित्र ही काम आता है। भगवान से मित्रता रखेंगे तो मित्र-रूप में वे ही काम आयेंगे।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार मूर्धा में ओंकार के जप का जीवन भर एक साधनात्मक अभ्यास करना होगा। तारक मंत्र "रां" की शरण लें। महात्माओं के सत्संग में सुना है कि "राम्" और "ॐ" में कोई अंतर नहीं है। दोनों का फल एक ही है। एक विशेष विधि से इस मंत्र का श्रवण करते रहें। यही इसका अनुसंधान है। यह भगवान की कृपा से ही समझ में आने वाली बात है।
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जब भी हम सांस लेते हैं, तब घनीभूत प्राण-ऊर्जा मूलाधारचक्र से ऊपर उठकर सुषुम्ना मार्ग से सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रारचक्र तक स्वभाविक रूप से जाती है। फिर जब सांस छोड़ते हैं तब यही प्राण-ऊर्जा सहस्त्रारचक्र से बापस नीचे सभी चक्रों को जागृत करती हुई लौटती है। ऊपर जाते समय मणिपुरचक्र को जब यह आहत करती है तब वहाँ एक बड़ा शब्द - "रं" - जुड़ जाता है। आज्ञाचक्र में वहाँ से निरंतर निःसृत होती हुई प्रणव की ध्वनि "ॐ" जब उसमें जुड़ जाती है, तब "रं" और "ॐ" दोनों मिलकर "राम्" हो जाते हैं, और स्पष्ट सुनाई देते हैं। एक दिन में ये नहीं सुनाई देंगे। कई महीनों तक अभ्यास करना पड़ता है। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा से मानसिक जप करना पड़ता है। फिर यह हमारा स्वभाव बन जाता है।
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भ्रूमध्य ही हरिःद्वार है, यानि राम जी का द्वार है। मृत्यु के समय भगवान शिव अपने भक्तों को तारक मंत्र "राम्" की दीक्षा देते हैं। भ्रूमध्य में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते ब्रह्मरंध्र के मार्ग से देह त्याग कर देते हैं , उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन है। यदि आप संसार-सागर को पार कर इसी जीवनकाल में मोक्ष चाहते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न १० श्लोकों का गहनतम स्वाध्याय व अनुसरण करें।
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
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भगवान आप की रक्षा करें। भगवान को समर्पित होंगे तो प्रकृति की प्रत्येक शक्ति आपका सहयोग करने को बाध्य है। शरीर का ध्यान रखो पर निर्भरता सिर्फ परमात्मा पर ही रहे। उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दो जो सदा नकारात्मक बातें करते हैं। आपका कल्याण हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२४

कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं ---

 कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं ---

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अपनी सामान्य संसारिक चेतना में मेरे मन में अनेक प्रश्न जन्म लेते हैं, जिनका मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता। लेकिन उच्चतर केन्द्रों में वेदान्त की चेतना जागृत हो जाती है, जिसमें वे सारे प्रश्न और सारे उत्तर महत्त्वहीन होकर तिरोहित हो जाते हैं। अतः निज चेतना को एक निश्चित बिन्दु से नीचे नहीं आने देना चाहिए। इसका अभ्यास बहुत आवश्यक है।
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अब किसी भी तरह के वाद-विवाद का समय नहीं है। धर्म-अधर्म के चिंतन का भी समय नहीं है, क्योंकि भगवान से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ। किसी भी तरह का अनात्म चिंतन होने ही न पाये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२३

परमशिव को नमन !!

  परमशिव को नमन ---

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"पीठं यस्या धरित्री जलधरकलशं लिङ्गमाकाशमूर्तिम् ,
नक्षत्रं पुष्पमाल्यं ग्रहगणकुसुमं चन्द्रवह्न्यर्कनेत्रम्।
कुक्षिः सप्त: समुद्रं भुजगिरिशिखरं सप्तपातालपादम्
वेदं वक्त्रं षडङ्गं दशदिश वसनं दिव्यलिङ्गं नमामि॥"
अर्थात् - पृथ्वी जिन का आसन है, जल से भरे हुए मेघ जिन के कलश हैं, सारे नक्षत्र जिन की पुष्प माला है, ग्रह गण जिनके कुसुम हैं, चन्द्र सूर्य एवं अग्नि जिन के नेत्र हैं , सातों समुद्र जिन के पेट हैं , पर्वतों के शिखर जिन के हाथ हैं , सातों पाताल जिन के पैर हैं, वेद और षड़ङ्ग जिन के मुख हैं, तथा दशों दिशायें जिन के वस्त्र हैं -- ऐसे आकाश की तरह मूर्तिमान दिव्य लिङ्ग को में नमस्कार करता हूँ।
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शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है। सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है। स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे -- तुरीय चेतना -- में विलय हो जाता है। उस तुरीय चेतना का प्रतीक है -- शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मयोनी में निरंतर जागृत रहता है. उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है. लिंग का शाब्दिक शास्त्रीय अर्थ है विलीन होना। शिवत्व में विलीन होने का प्रतीक है शिवलिंग।
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शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है। यही हमारा लक्ष्य है। शिव का अर्थ है -- कल्याणकारी।
शंभू का अर्थ है -- मंगलदायक।
शंकर का अर्थ है -- शमनकारी और आनंददायक।
ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है। इनमें कोई भेद नहीं है।
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पञ्चमुखी महादेव -- योगियों को गहन ध्यान में कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है। वह पञ्चकोणीय नक्षत्र पंचमुखी महादेव है। गहन ध्यान में योगीगण उसी का ध्यान करते हैं। ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है -- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। भगवान शिव पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले है। शिवपुराण के अनुसार ये पाँच मुख हैं -- ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात।
भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है जो आकाश तत्व के अधिपति हैं। इसका अर्थ है सबके स्वामी|
पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जो वायु तत्व के अधिपति हैं।दक्षिणी मुख का नाम 'अघोर' है जो अग्नितत्व के अधिपति हैं।उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो जल तत्व के अधिपति हैं।
पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है, जो पृथ्वी तत्व के अधिपति हैं।
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भगवान शिव पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति हैं इसलिए ये 'भूतनाथ' कहलाते हैं। भगवान शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' कहलाते है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण -- ये पाँचों मिल कर काल कहलाते हैं। ये काल के पाँच अंग हैं।
शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर| -- ये पाँचों मिलकर शिव-परिवार कहलाते हैं। नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं। शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र -- 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है। साधना में प्रयुक्त रुद्राक्ष भी सामान्यत: पंचमुखी ही होता है।
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जो परम कल्याणकारक हैं वे परमशिव हैं। परमशिव एक अनुभूति है। ब्रह्मरंध्र से परे परमात्मा की विराट अनंतता का सचेतन बोध परमशिव की अनुभूति है। तब साधक स्वयं ही परमशिव हो जाता है। भगवान परमशिव दुःखतस्कर हैं। तस्कर का अर्थ होता है -- जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है। भगवान परमशिव अपने भक्तों के सारे दुःख और कष्ट हर लेते हैं। वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं। जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं।
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परमात्मा के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। ब्रह्म शब्द का अर्थ है -- जिनका निरंतर विस्तार हो रहा है, जो सर्वत्र व्याप्त हैं, वे ब्रह्म हैं।
सूक्ष्म देह के भीतर सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक शिवलिंग तो मूलाधार चक्र के बिलकुल ऊपर है। मूलाधार से सहस्त्रार तक एक ओंकारमय दीर्घ शिवलिंग है। मेरुदंड में सुषुम्ना के सारे चक्र उसी में हैं।
एक शिवलिंग आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में है। मानसिक रूप से उसी में रहते हुए परमशिव अर्थात ईश्वर की कल्याणकारी ज्योतिर्मय सर्वव्यापकता का ध्यान किया जाता है। ध्यान भ्रूमध्य से आरम्भ करते हुए सहस्त्रार पर ले जाएँ और श्रीगुरुचरणों में आश्रय लेते हुए वहीं से करें।
सम्पूर्ण अनंतता से परे मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव हैं, जिनकी चेतना ही मेरा अस्तित्व है। ॐ शिव ! ॐ तत्सत् !
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ ॐ नमःशिवाय॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१७ जून २०२१

जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही "मुनि" हैं ---

 जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही "मुनि" हैं ---

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सारे नाम और सारे आकार परमात्मा के हैं। मानसिक रूप से जप करते हुए हम निःशब्द मौन हो जाते हैं। इस मौन को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में मानस-तप बतलाया है --
"मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७:१६॥"
अर्थात् - मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है॥
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ -- शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है -- हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर स्वयं को ही ढूँढ़ना होगा। जो मैंने पाया है, आवश्यक नहीं है कि वह आप के भी अनुकूल हो। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है। लेकिन अनुसंधान तो स्वयं को ही करना होगा।
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एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला, और एक मंत्र होता है कामना को नष्ट करने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब तक कोई कामना, आकांक्षा व इच्छा होती है, तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा की अभीप्सा होती है, न कि आकांक्षा।
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जहाँ सभी आकांक्षाओं का स्रोत ही सूख जाये, जहाँ से व्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है, वहीं से परमात्मा की उपासना का आरंभ होता है। जैसे अंधकार और प्रकाश साथ साथ नहीं रह सकते, वैसे ही योग और भोग भी साथ-साथ नहीं हो सकते। कुछ पाने की कामना का ही नाश करना होगा। परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए पृथकता के बोध का समर्पण ही होता है, न कि कुछ प्राप्ति। प्राप्त करने को तो कुछ भी नहीं है, सब कुछ हम स्वयं हैं। इस विषय का गंभीरता से चिंतन कीजिये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४
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पुनश्च: ---- भक्ति निष्काम और अनन्य होनी चाहिए। निष्काम और अनन्य भक्ति को ही भगवान श्रीकृष्ण ने "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहा है। आरंभ में तो यह भाव हो कि सब कुछ परमात्मा हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। धीरे धीरे आप परमात्मा के साथ एक हो जायें, और यह भाव करें कि मैं ही सर्वस्व परमात्मा हूँ, और मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। भगवान से अन्य किसी भी आकांक्षा को भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥

Monday, 16 June 2025

तपोभूमि भारत ---

 तपोभूमि भारत ---

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ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं, धर्म-आध्यात्म, भक्ति-शौर्य, वेद-पुराण, योग-वेदांत, विभिन्न दर्शन शास्त्रों, त्याग-तपस्या व साधना-उपासना की पुण्यभूमि भारत पर अब भी चोर-उचक्कों, व्यभिचारी-भ्रष्टाचारियों, अधर्मी-दुष्टों का वर्चस्व है| शासक वर्ग तो विधान से ऊपर होकर जी रहा है| भूमिचोर शासक बन गए हैं| देश को बेचते जा रहे हैं| बाजारों पर विदेशियों का अधिकार हो रहा है| देश का धन विदेशों में जा रहा है| देश का विधान भारतीय लगता ही नहीं है| अल्पसंख्यकवाद, आरक्षण, धर्मनिरपेक्षतावाद आदि से देश की अखण्डता इतिहास के पन्नों में खो रही है| भारतीय संस्कृति लुप्तप्राय होती जा रही है|
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व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन कुंठा, असंतोष और तनाव से भर गया है| बिलकुल वैसी ही स्थिति बन गयी है जो महाविनाश से पूर्व होती है| देश की शिक्षा पद्धति व्यक्ति को कर्महीन व लोभी-लालची बनाती जा रही है| सारे नैतिक मूल्य लुप्त होते जा रहे हैं|
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ऐसे में क्या हम तटस्थ रह सकते हैं? हम मातृभूमि के अभ्युत्थान और नि:श्रेयस के लिए क्या कर सकते हैं? हम हमारी पुण्यभूमि को कैसे परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बैठा सकते हैं? क्या हम सब इन बिन्दुओं पर विचार करेंगे? यदि कुछ नहीं कर सकते तो हमारा जीवन व्यर्थ है|
जय जननी, जय भारत||
१७ जून २०१३

विश्व युद्ध की संभावना है भी, और नहीं भी है ---

 विश्व युद्ध की संभावना है भी, और नहीं भी है ---

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(यह लेख लिखना मुझे अति अति आवश्यक लगा इसलिए लिख रहा हूँ)
रूस और अमेरिका के मध्य इस समय एक बहुत बड़ा तनाव चल रहा है। अमेरिका ने रूस को और रूस ने अमेरिका को चारों ओर से घेर रखा है। यूक्रेन में युद्ध अमेरिका ने आरंभ करवाया था रूस को नष्ट करने के लिए ताकि रूस के संसाधनों पर अमेरिका का नियंत्रण हो सके। अभी इटली में जो G-7 सम्मेलन हुआ था उसका भी एकमात्र उद्देश्य रूस को नीचा दिखाना था।
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रूस ने हाइपरसोनिक मिसाइलों में परमाणु अस्त्र लगाकर क्यूबा में, जो अमेरिका के बिलकुल समीप है, तैनात कर दिये हैं, और रूस की न्यूक्लीयर पण्डुब्बियों ने परमाणु अस्त्रों के साथ अमेरिका और ब्रिटेन को घेर रखा है। अमेरिका ने भी रूस से लगे हुए नाटो देशों में आणविक अस्त्र तैनात कर दिये हैं। एक ओर से जरा सी भी भूल अमेरिका, ब्रिटेन सहित अनेक नाटो देशों को नष्ट कर सकती है। आधा रूस भी नष्ट हो जाएगा। रूस की ओर से उत्तरी कोरिया भी अपने आणविक अस्त्रों से अमेरिका के गुआम और हवाई द्वीप समूह, और अमेरिका के पश्चिमी तट के अनेक स्थानों को नष्ट कर सकता है।
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रूस-यूक्रेन युद्ध आरंभ होने पर मैंने यूक्रेन और क्रीमिया क्षेत्र के इतिहास और तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन और निष्पक्ष विश्लेषण किया था। वर्तमान युद्ध का पूरा दोष मैं अमेरिका को देता हूँ। यूक्रेन के भ्रष्ट शासक अमेरिका की शह पर ही यह सब कर रहे हैं। पूरी तरह मेरी सहानुभूति रूस के साथ है। रूस ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए जो किया है, वह सही किया है। मैं रूस में भी रहा हूँ, और यूक्रेन में भी। अतः वहाँ की परिस्थितियों का ज्ञान है।
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रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने के लिए एक ही उपाय है कि विक्तोर यानुकोविच को दुबारा यूक्रेन का राष्ट्रपति बनाया जाये। वे यूक्रेन के चुने हुए राष्ट्रपति थे, जिनको अवैध तरीके से सन २०१४ ई⋅ में हटाकर उनकी पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया था। अमेरिका की सहायता से यूक्रेन की सबसे बड़ी पार्टी को प्रतिबन्धित करवा के अवैध तरीको से सत्ता में आने वाला नशेड़ी विदूषक झेलेन्स्की जब तक वहाँ का शासक है, यूक्रेन में शांति स्थापित नहीं हो सकती। भारत की मीडिया को अमेरिका से पैसा मिलता है इसलिए वे दिन-रात झेलेंस्की को महिमा-मंडित करते रहते हैं।
ॐ तत्सत् !!
१७ जून २०२४

Sunday, 15 June 2025

समुद्री तूफानों के बारे में ---

समुद्री तूफानों के बारे में --- जो समुद्री तूफान भूमध्य रेखा से नीचे आते हैं, वे दक्षिण दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। जो समुद्री तूफान भूमध्य रेखा से ऊपर आते हैं, वे उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। पृथ्वी के भीतर कुछ अज्ञात चुम्बकीय रेखाएँ होती हैं, जिनके अनुसार ये अपना मार्ग बनाते हैं। अरब सागर में द्वारका, और बंगाल की खाड़ी में जगन्नाथपुरी के क्षेत्र में कुछ अज्ञात आकर्षण है जो वहाँ के समुद्र में वायुमंडल के कम दबाव के क्षेत्र को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसीलिए वहाँ हर वर्ष समुद्री तूफान आते हैं।

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समुद्री तूफानों का एक निश्चित चक्र होता है जो हर वर्ष प्रकृति के नियमों के अनुसार निर्मित और संचालित होता है। प्रकृति के नियमों को समझना पड़ता है। प्रकृति अपने नियमों से चलती है, न कि मनुष्य के बनाए नियमों से। समुद्र में कम दबाव के क्षेत्र जिन्हें हम तूफान कहते हैं, यदि नहीं बनेंगे तो पृथ्वी पर वर्षा नहीं होगी।
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चंद्रमा के घटने बढ़ने का समुद्र के जल पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिस के कारण ज्वार भाटा आता है। गृह-नक्षत्रों का भी प्रभाव पड़ता होगा, जिस पर कोई आधुनिक अनुसंधान नहीं हुए हैं। भारत में सन १९७९ के समय से मौसम विज्ञान पर बहुत बड़े बड़े खूब अनुसंधान हुये हैं। इस विषय पर भारत अब एक अग्रणी देश है।
१६ जून २०२३

हे पुण्य भूमि भारत, हे मातृभूमि भारत .....

 हे पुण्य भूमि भारत, हे मातृभूमि भारत .....

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ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं, धर्म-आध्यात्म, भक्ति-शौर्य, वेद-पुराण, योग-वेदांत, विभिन्न दर्शन शास्त्रों, और त्याग-तपस्या व साधना की पुण्यभूमि भारत आज चोर-उचक्कों, व्यभिचारी-भ्रष्टाचारियों, बेरोजगारों-नशेड़ियों, और अधर्मी-दुष्टों की भूमि बन कर क्यों रह गई है ?????
शासक वर्ग तो विधान से ऊपर होकर जी रहा है| भूमिचोर शासक बन गए हैं| देश को बेचते जा रहे हैं| बाजारों पर विदेशियों का अधिकार हो रहा है| देश का धन विदेशों में जा रहा है| देश का विधान भारतीय लगता ही नहीं है| अल्पसंख्यकवाद, आरक्षण, धर्मनिरपेक्षतावाद आदि से देश की अखण्डता इतिहास के पन्नों में खो गयी है| कहाँ लुप्त हो गयी है भारतीय संस्कृति ?????
व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन कुंठा, असंतोष और तनाव से भर गया है|
बिलकुल वैसी ही स्थिति बन गयी है जो महाविनाश से पूर्व होती है| देश की शिक्षा पद्धति व्यक्ति को कर्महीन व लोभी-लालची बनाती जा रही है| सारे नैतिक मूल्य लुप्त होते जा रहे हैं|
ऐसे में क्या आप तटस्थ रह सकते हैं ?????
हम मातृभूमि के अभ्युत्थान और नि:श्रेयस के लिए क्या कर सकते हैं?????
हम हमारी पुण्यभूमि को कैसे परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बैठा सकते हैं?????
क्या आप सब इन बिन्दुओं पर विचार करेंगे?????
यदि कुछ नहीं कर सकते तो आपका जीवन व्यर्थ है|
जय जननी, जय भारत||
१६ जनवरी २०१३

ब्रह्ममुहूर्त में भगवान अपने प्रेमियों को पकड़ ही लेते हैं ---

 ब्रह्ममुहूर्त में भगवान अपने प्रेमियों को पकड़ ही लेते हैं ---

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भगवान की पकड़ से छुटना असंभव है। धन्य हैं वे प्रेमी जिन्हें भगवान पकड़ लेते हैं और छोड़ते नहीं हैं। उठते ही थोड़ा उष:पान करें, और सब शंकाओं से निवृत होकर अपना आसन ग्रहण कर, अपनी-अपनी गुरु-परंपरानुसार ध्यान करें।
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भगवान को अपना सारा अस्तित्व समर्पित कर दें, फिर ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें। आप यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत ज्योतिर्मय ब्रह्म, और परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं। आप ज्योतिषांज्योति, सारे सूर्यों के सूर्य, और प्रकाशों के प्रकाश हैं। आप परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति और प्रियतम प्रभु के साथ एक हैं।
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शिवोहं शिवोहं शिव शिव शिव !! अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०२३

परमात्मा का नाम, रूप और स्वभाव क्या है? ---

 परमात्मा का नाम, रूप और स्वभाव क्या है? ---

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इस बारे में श्रुति (वेद) ही प्रमाण है। सारे नाम परमात्मा के ही हैं। सारे आकार भी उसी के हैं, इसलिए परमात्मा निराकार है। मौन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में एक तप बताया है --
"मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७:१६॥"
अर्थात् - मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है॥
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जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही मुनि हैं। वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है। उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा। सिर्फ श्रुतियाँ (वेद) ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान।
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ -- शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है - हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर स्वयं को ही ढूँढ़ना होगा। जो मैंने पाया है, आवश्यक नहीं है कि वह आप के भी अनुकूल हो। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है। लेकिन अनुसंधान तो स्वयं को ही करना होगा।
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एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला, और एक मंत्र होता है कामना को नष्ट करने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब तक कोई कामना, आकांक्षा व इच्छा होती है, परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा की प्राप्ति की अभीप्सा होती है, न कि आकांक्षा।
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जहाँ सभी आकांक्षाओं का स्रोत ही सूख जाये, जहाँ से व्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है, वहीं से परमात्मा की उपासना का आरंभ होता है। जैसे अंधकार और प्रकाश साथ साथ नहीं रह सकते, वैसे ही योग और भोग भी साथ-साथ नहीं हो सकते। कुछ पाने की कामना का ही नाश करना होगा। परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए सिर्फ स्वयं का समर्पण ही होता है, न कि कुछ प्राप्ति।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

 परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

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जब हम स्वयं परमात्मा के समक्ष होते हैं, तब सारे उपदेश, आदेश, सिद्धान्त, मत-पंथ, संप्रदाय, मांग, कामना, आकांक्षा, अपेक्षा, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य आदि सब तिरोहित हो जाते हैं। हमारा समर्पण पूर्ण प्रेम और सत्यनिष्ठा से हो, अन्य कुछ भी नहीं। आध्यात्म में "भटकाव" बड़ा कष्टदायी है। भगवान सर्वत्र सदैव निरंतर हमारे समक्ष हैं, और क्या चाहिए? सदा उनकी चेतना में निरंतर बने रहो।
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शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती। भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र और सर्वदा हमारे साथ एक हैं। वे हमारे प्राण और अस्तित्व हैं। वे कभी हमसे पृथक नहीं हो सकते। कहीं कोई भेद नहीं है। हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। परमात्मा का ध्यान कीजिये, वे स्वयं को हमारे में व्यक्त करेंगे। यही सर्वश्रेष्ठ सेवा है, जो हम इस समय कर सकते हैं।
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निराश होने की आवश्यकता नहीं है। तमोगुण की प्रधानता से हम निराश हो जाते हैं। तमोगुण ही असत्य और अंधकार की शक्ति है। जिस समय जिस गुण की प्रधानता हमारे में होती है, उस समय वैसे ही हमारे विचार बन जाते हैं। तमोगुण के कारण हमें अपने चारों ओर का वातावरण बहुत अधिक अंधकारमय लगता है। लेकिन सत्य कुछ और ही है। यह जन्म हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मिला है। इसे नष्ट करना परमात्मा के प्रति अपराध है। आत्मज्ञान ही परम धर्म है।
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ॐ सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांति शांति शांति !!
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

🌹🙏 गंगा दशहरा 🙏🌹 पर सभी श्रद्धालुओं का अभिनंदन ---

 हर साल ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को "गंगा दशहरा" का पावन पर्व मनाया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन माँ गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आईं थीं। आज गंगा दशहरा के पावन पर्व पर हमारे परिवार के अनेक सदस्यों ने हरिद्वार में गंगाजी में स्नान किया और विधिवत पूजा की। मेरे जाने का संयोग नहीं बैठा। गंगा जी में स्नान किए हुए भी बहुत वर्ष बीत गये हैं। जब भी माँ गंगा बुलायेंगी तभी जाना होगा। माँ गंगा से प्रार्थना है कि मेरे सभी पूर्वजों का उद्धार करे।

हरिद्वार में ही वर्षों पूर्व एक बार गंगा जी के जल में कमर तक के पानी में बैठकर पितृलोक के देवता भगवान अर्यमा का ध्यान किया था। उन्होने भी कृपा कर के अपनी उपस्थिती का आभास कराया और आशीर्वाद प्रदान किया। उनसे भी यही प्रार्थना की थी।
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माँ गंगा का अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में हुआ था। भागीरथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पृथ्वी पर माता गंगा को लाना चाहते थे। उन्होंने माँ गंगा की कठोर तपस्या की। भागीरथ ने उनसे धरती पर आने की प्रार्थना की। माँ गंगा ने बताया कि उनकी तेज धारा का प्रचंड वेग केवल भगवान शिव ही सहन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। मां गंगा के प्रचंड वेग को भगवान शिव ने अपनी जटाओं में समा लिया और नियंत्रित वेग से गंगा को पृथ्वी पर प्रवाहित किया।
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देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले ॥ १ ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचितं गङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

हे प्रभु, मुझे आप में समर्पण करना सिखाओ ---

 हे प्रभु, मुझे आप में समर्पण करना सिखाओ ---

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हे परमात्मा, हे भगवन, मैं वास्तव में स्वयं को आप में पूर्णतः समर्पित करना चाहता हूँ। अब तक तो जो कुछ भी किया, लगता है कि वह सब एक ढोंग या दिखावा मात्र ही था। वास्तविकता का नहीं पता। अब स्वयं को और धोखा नहीं देना चाहता।
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मेरे ह्रदय की सारी कुटिलता का नाश करो। मैं स्वयं को खाली करना चाहता हूँ, स्वयं पर कई विचार लाद रखे हैं उन सब से मुक्त करो। अपने स्वरुप का बोध कराओ। चैतन्य में सिर्फ आपकी ही स्मृति रहे। आपका ही निरंतर सत्संग सदैव बना रहे।
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ह्रदय में दहकती इस अतृप्त प्यास को बुझाओ| आप ही मेरी गति हैं और आप ही मेरे आश्रय हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

एक शाश्वत प्रश्न ---

 एक शाश्वत प्रश्न ---

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हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं -- फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है?
क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाये? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग यानि Short Cut है?
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बार बार मन को परमात्मा में लगाते हैं, पर यह मानता ही नहीं है। भाग कर बापस आ जाता है। अब इसका क्या करें? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनायी ही क्यों? ये सब शाश्वत प्रश्न हैं, कोई खाली बैठे की बेगार नहीं।
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है। न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है। अब तुम और छिप नहीं सकते। तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा। तुम निरंतर मेरे साथ भी हो पर फिर भी धुएँ की एक पतली सी दीवार मध्य में है जिसके कारण तुम्हारी विस्मृति कभी कभी हो जाती है। पूर्ण अभेदता हो। किसी भी तरह का कोई भेद ना हो। मेरा समर्पण पूर्ण हो। आपकी और मेरी दोनों की जय हो।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपाशंकर
१५ जून २०१५

जिन खोजा तीन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ---

 जिन खोजा तीन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ---

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परमात्मा की भाषा "मौन" है। परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है। उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे, वह सत्य नहीं होगा। सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण हैं, बाकि सब अनुमान। परमात्मा हमेशा मौन है। यह उसका सहज स्वभाव है। उसके सारे नाम ज्ञानियों और भक्तों द्वारा दिए गए नाम हैं। मौन निर्विचार की स्थिति है। वह विचारों को सप्रयास रोकना नहीं, बल्कि साक्षीभाव से उनका अवलोकन है।
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पुनश्च: --- अब तक जो स्वाध्याय किया है वह पर्याप्त है इसी जीवन में परमात्मा के साक्षात्कार के लिए। और कुछ भी पढ़ने या सीखने की आवश्यकता मुझे नहीं है। नित्य कुछ न कुछ धूल जमती रहती है मन पर, जिसे हटाने के लिए थोड़ा-बहुत स्वाध्याय और साधना नित्य आवश्यक है। मैंने लिखा था कि हम इसी जीवन में ईश्वर को उपलब्ध हों, इसके अतिरिक्त मेरी रुचि अन्य किसी भी विषय में नहीं है। अतः अब आवश्यकता और अधिक गहरी डुबकी लगाने की है। सभी मित्रों से भी मेरा यही अनुरोध है कि निज विवेक के प्रकाश में जीवन में वे जो भी सर्वश्रेष्ठ कर सकते हैं, वह करें। मंगलमय शुभ-कामनाएँ॥
कृपा शंकर
१५ जून २०२५

Saturday, 14 June 2025

विश्व पर ये तीन राक्षसी शक्तियाँ इस समय राज्य कर रही हैं ---

 विश्व पर ये तीन राक्षसी शक्तियाँ इस समय राज्य कर रही हैं ---

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अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के प्रायः सारे संसाधन इन्हीं के अधिकार में हैं। अंततः ये विश्व की जनसंख्या को कम कर के उतने ही मनुष्यों को जीवित रखना चाहेंगी, जिन पर ये आसानी से राज्य कर सकें। इनकी आतंरिक व्यवस्था बड़ी गोपनीय है जहाँ का भेद पाना अति कठिन है। ये तीन राक्षसी शक्तियाँ हैं --
(१) सिटी ऑफ़ लन्दन, (२) वाशिंगटन डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ कोलंबिया, और (३) वेटिकेन सिटी.
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पुनश्च: --- इन्होने NATO नाम का एक लठैत पाल रखा है, जो इनकी बात नहीं मानता, उसे वे इस लठैत से पिटवा देते हैं। और भी बहुत सारी बड़ी महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें इस लेख में लिखना संभव नहीं है। पहले लिख चुका हूँ।
१५ जून २०२२




कुछ जिज्ञासाएँ ..... कुछ प्रश्न ......

 (१) चारों ओर इतना शोर है ........... क्या इस शोर में मौन संभव है ? .............

चारों ओर इतना ध्वनि प्रदूषण है .... जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
इतने शोर में मौन कैसे रहें ? .......... क्या बाहर का शोर भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हैं ?
बाहर के शोर से निरपेक्ष होकर कैसे आतंरिक मौन को उपलब्ध हों ?
बाहर का शोर बाधा है या परमात्मा की ही एक अभिव्यक्ति ?
बार बार मन में उठने वाले विचार भी भयंकर से भयंकर शोर से कम नहीं हैं| क्या यह भी परमात्मा का ही अनुग्रह है ?
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(२) पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे, व उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि वह एक डोर से बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है|
असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है ?
वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है|
क्या कोई Short Cut यानि लघु मार्ग है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे ?
इस कर्मों कि डोर से इस अल्प काल में कैसे मुक्त हो सकते हैं ? वह भी किसी लघु मार्ग से ?
सभी प्रकार के विक्षेपों और मिथ्या आवरणों से कैसे तुरंत प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं ?
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(३) हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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(४) क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाए ? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग यानि Short Cut है?
बार बार मन को प्रभु में लगाते हैं पर यह मानता ही नहीं है? भाग कर बापस आ जाता है |
अब इसका क्या करें ? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनाई ही क्यों?
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ये सब शाश्वत प्रश्न हैं, कोई खाली बैठे की बेगार नहीं|
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
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तुम निरंतर मेरे साथ भी हो पर फिर भी धुएँ की एक पतली सी दीवार मध्य में है जिसके कारण तुम्हारी विस्मृति कभी कभी हो जाती है| पूर्ण अभेदता हो| किसी भी तरह का कोई भेद ना हो|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|
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ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१५ जून २०१५

हमारा प्रेम सर्वव्यापी है .....

 हमारा प्रेम सर्वव्यापी है .....

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जैसे भगवान भुवन भास्कर अपना प्रकाश बिना किसी शर्त सब को देते हैं, वैसे ही हम अपना सम्पूर्ण प्रेम पूरी समष्टि को दें| फिर पूरी समष्टि ही हमसे प्रेम करेगी| वह समस्त प्रेम हम स्वयं हैं| हम ज्योतिषांज्योति, सारे सूर्यों के सूर्य, प्रकाशों के प्रकाश हैं| जैसे भगवान भुवन भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही हमारे परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ नहीं टिक सकतीं|
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हम अपनी पूर्णता को प्रकट करें| हमारा प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है| हमारी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, हमारी पूर्णता ही परमेश्वर है और अपनी पूर्णता में हम स्वयं ही परमात्मा हैं| हम जीव नहीं, साक्षात शिव हैं|
ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०१४

हरिः से सम्मुखता ही जीवन है, और विमुखता मृत्यु है ---

 हरिः से सम्मुखता ही जीवन है, और विमुखता मृत्यु है ---

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परमात्मा के बारे में कोई भी सार्वजनिक चर्चा केवल संत-महात्माओं को ही करनी चाहिए, क्योंकि उनके समक्ष वे ही श्रौता आएंगे जिनमें सतोगुण या रजोगुण प्रधान है। जिनमें तमोगुण प्रधान है उनके समक्ष ईश्वर की चर्चा का कोई लाभ नहीं है, अतः नहीं करनी चाहिए। तमोगुणी लोग आध्यात्म के बारे में कुछ समझ भी नहीं पाएंगे। उन्हें सिर्फ मारकाट या लड़ाई-झगड़े की बात ही समझ में आ सकती है।
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एक बार मैं ब्रह्ममुहूर्त में सो कर उठा तब मुझे बुरा और डरावना अनुभव हुआ। मेरे चारों ओर अति घोर काले रंग का अंधकार ही अंधकार था। इतना भयंकर अंधकार कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मन में बहुत अधिक बुरे और डरावने विचार आ रहे थे। कुछ भी अच्छी बात दिमाग में नहीं आ रही थी। बड़ी कठिनाई से भगवान से प्रार्थना की कि मुझे इस अंधकार से बाहर निकालो।
उसी क्षण मैंने स्वयं को एक प्रकाशमय जगत में पाया, जहाँ किसी भी तरह का कोई अंधकार नहीं था। चारों ओर आनंद ही आनंद था। किसी ने मुझ से कहा कि भूल से भी पीछे मुड़कर मत देखना। पीछे प्रत्यक्ष मृत्यु है और सामने जीवन। पूरी बात मुझे समझ में आ गई जो किसी अन्य को समझाई नहीं जा सकती।
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हमारी चेतना में परमात्मा सदा हर समय निरंतर बने रहें तो यह परमात्मा से सम्मुखता है। विपरीत दिशा में अंधकार की ओर देखना परमात्मा से विमुखता है।
रामचरितमानस में भगवान कहते हैं --
"सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥"
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भगवान का स्मरण पूरे दिन निरंतर होना चाहिए, रुक-रुक कर नहीं। गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैश्यसंशयम् ॥८:७॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८:१४॥"
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पूरे विश्व में इस समय भारत के विरुद्ध सारे पश्चिमी देशों, चीन, पाकिस्तान और ईसाई क्रूसेडरों व इस्लामी जिहादियों द्वारा षड़यंत्र रचे जा रहे हैं। निशाने पर सनातन धर्म है। ये सब सनातन धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। ईश्वर की चेतना ही हमें बचा सकती है। आने वाला समय अच्छा नहीं, बहुत अधिक खराब है। हम एक भयावह विनाश और विध्वंस के साक्षी बनने वाले हैं। भगवान के भक्तों की रक्षा होगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०२४