Sunday, 29 June 2025

इस जीवात्मा को परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?

 इस जीवात्मा को परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?

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यह एक मौलिक प्रश्न है जिसे कोई नहीं पूछता। मेरे और परमात्मा के मध्य में कौन सी कड़ी (Link) है? मुझे परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?
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वह परमात्मा की ही एक शक्ति है जो मुझे लेकर परमात्मा से पृथक हुई, और मुझे लेकर बापस परमात्मा से एक दिन मिल जाएगी। उन्होने ही मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है।
प्राण-तत्व के रूप में जगन्माता ही हमें परमात्मा से जोड़ती है। वे ही हमारा प्राण हैं। जगन्माता के सारे सौम्य और उग्र रूप उन्हीं के हैं। उन्हीं का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है। वे ही महाकाली हैं।
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हे भगवती, हे जगन्माता, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
कृपा शंकर
३० जून २०२२

भगवान क्या खाते हैं ?? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं ---

 भगवान क्या खाते हैं ?? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं --

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"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९:२६॥"
अर्थात् - जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा, शुद्धबुद्धि भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूँ, अर्थात् ग्रहण करता हूँ।
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भक्तों को अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है। भगवान बड़े भोले हैं, उन्हें हम प्रेम से जो भी अर्पण करते हैं, उसे ही वे खा लेते हैं। वास्तव में हम जो कुछ भी खाते हैं, वह सब भगवान ही खाते हैं, जिससे समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है। भगवान स्वयं वेश्वानर के रूप में उसे ग्रहण कर जठराग्नि द्वारा चार प्रकार के अन्नों (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) को पचाते हैं --
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् - "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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हम जहाँ भोजन करते हैं, वहाँ का स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिस आसन पर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध और पवित्र होना चाहिये। भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीर के आसपास के परमाणुओं को भी खींचते/ग्रहण करते हैं। हम भगवान को क्या खिलाते हैं, उसी के अनुसार मन बनेगा। भोजन बनाने वाले के भाव, विचार भी शुद्ध और सात्त्विक होने चाहियें।
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भोजन से पूर्व हाथ पैर मुख पवित्र जल से साफ कर के बैठिए। दायें हाथ में जल लेकर मानसिक रूप से गीता के इस मंत्र से आचमन करें ---
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
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आचमन के पश्चात पहले ग्रास के साथ मानसिक रूप से मंत्र "ॐ प्राणाय स्वाहा" अवश्य कहें। प्रत्येक ग्रास को चबाते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहना चाहिए। भोजन करते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहने से अन्नदोष दूर हो जाता है।
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यदि आप भगवती अन्नपूर्णा के भक्त है तो उपरोक्त सब विधियों के साथ साथ आरंभ में भगवती अन्नपूर्णा का मंत्र भी मानसिक रूप से पूर्ण भक्ति-भाव से अवश्य कहना चाहिए --
"अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३० जून २०२२
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टिप्पणी :--- "प्रयतात्मा" का अर्थ शब्दकोश के अनुसार - संयमी, जितेंद्रिय है।

साकार या निराकार ? .....

 साकार या निराकार ? .....

मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से साकार व निराकार में कोई अंतर नहीं है| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है वह सब साकार है, चाहे वह परमात्मा की सर्वव्यापकता हो, या कोई मन्त्र या कोई ज्योति हो या कोई भाव हो| पूरी सृष्टि ही साकार है|
जिसकी सृष्टि ही नहीं हुई है सिर्फ वह ही निराकार है|
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आजकल भगवान की साधना कम, और भगवान के नाम पर व्यापार अधिक हो रहा है| निराकार ब्रह्म की परिकल्पना एक परिकल्पना ही है| हम भगवान के जिस भी रूप की उपासना करते हैं, उपास्य के गुण उपासक में निश्चित रूप से आते हैं|
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योगसुत्रों में भी कहा गया है कि किसी वीतराग पुरुष का चिंतन करने से हमारा चित्त भी वैसा ही हो जाता है| हम भगवान राम का ध्यान करेंगे तो भगवान राम के कुछ गुण हम में निश्चित रूप से आयेंगे| भगवान श्री कृष्ण, भगवन शिव, हनुमान जी, जगन्माता आदि जिस भी किसी के रूप को हम ध्यायेंगे हम भी वैसे ही बन जायेंगे| अतः हमारी क्या अभीप्सा है और स्वाभाविक रूप से हम क्या चाहते हैं, वैसी ही हमारी साधना हो|
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भगवान की साधना सिर्फ भगवान के प्रेम के लिए ही करें| भगवान को अपना अहैतुकी परम प्रेम दें, उनके साथ व्यापार ना करें| भगवान के साथ हम व्यापार कर रहे हैं इसीलिए सारे विवाद उत्पन्न हो रहे हैं| कई हिन्दू आश्रमों में भगवान् श्री कृष्ण के साथ साथ ईसा मसीह की भी पूजा और आरती होती है| कुछ काली मंदिरों में माँ काली की प्रतिमा के साथ मदर टेरेसा के चित्र की भी पूजा होती है| यह एक व्यापार है|
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साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है| वास्तव में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| जो स्वयं को निराकार का साधक कहते हैं वे भी या तो भ्रूमध्य में प्रकाश का ध्यान करते हैं या किसी मंत्र का जप या ध्यान करते हैं| वह प्रकाश भी साकार है और मन्त्र भी साकार है| स्वयं को निराकार के साधक बताने वाले अपने गुरु के मूर्त रूप का ध्यान करते हैं, वह भी साकार है| किसी भाव का मन में आना ही उसे साकार बना देता है| अतः इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| देव भूत्वा देवम यजेत, शिव भूत्वा शिवम यजेत|
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मुझे कोई निराशा, हताशा व संशय आदि नहीं हैं| मेरा चिंतन एकदम स्पष्ट है|
किसी से कोई कामना या अपेक्षा भी नहीं है| भगवान की साधना ही साधना का फल है| वे स्वयं ही साधक, साधना और साध्य हैं| साधना में कोई माँग नहीं बल्कि समर्पण होता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
३० जून २०१७

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ---

 उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ---

आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है जिसका रहस्य प्रभु कृपा से ध्यान योग साधक जानते हैं| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है|
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उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है|
संत पलटूदास जी कहते हैं कि उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है| पर उस ज्योति के दर्शन और उस नाद का श्रवण सद्गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं करा सकता|
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उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ......
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
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पानी का कुआँ तो सीधा होता है पर यह उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का नित्य निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ..... ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ..... अनाहत नादब्रह्म है| यही राम नाम की ध्वनी है|
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'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सदगुरुओं के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है|
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बाहर हम जो दीपक जलाते हैं वे इसी कूटस्थ ज्योति के प्रतीक मात्र हैं| बाहर के घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उसी कूटस्थ अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं|
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ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं|
ब्रह्म के दो स्वरुप हैं| पहला है "शब्द ब्रह्म" और दूसरा है "ज्योतिर्मय ब्रह्म"| दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| आज्ञा चक्र में नियमित रूप से ध्यान लगाने से ही ज्योतिर्मय और शब्द ब्रह्म की अनुभूति होती है|
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प्रिय निजात्मगण, आप सब की भावनाओं को नमन और मेरे लेख पढने के लिए आप सब का अत्यंत आभार| आप सब सदा सुखी एवं सम्पन्न रहें| आप की कीर्ति सदा अमर रहे|
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ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
३० जून २०१६

भारत और विश्व में हिंदुओं की और सनातन धर्म की रक्षा कौन करेगा ?

 भारत और विश्व में हिंदुओं की और सनातन धर्म की रक्षा कौन करेगा ?

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हमारी सबसे बड़ी पीड़ा है भारत में निरंतर हो रही तमोगुण में वृद्धि, और धर्मांतरण (Religious conversion)। भारत से धर्म का ह्रास -- भारत का विनाश कर देगा। भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। विश्व में कहीं पर भी किसी हिन्दू का, धर्म के आधार पर यदि उत्पीड़न होता है तो उसकी रक्षा भारत सरकार को ही करनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। यह अति दुःखद है। यूरोप का हर देश और अमेरिका -- ईसाईयों की रक्षा करते हैं, और विश्व का हरेक मुसलमान देश -- मुसलमानों की रक्षा करता है।
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वर्तमान परिस्थितियों में हम असहाय हैं। और तो कुछ नहीं कर सकते लेकिन परमात्मा की साधना तो कर ही सकते हैं। परमात्मा से प्रार्थना करेंगे कि पूरे विश्व में सनातनी हिंदुओं की और धर्म की रक्षा हो।
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धर्म की जय हो॥ अधर्म का नाश हो॥
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम्। दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम्॥"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२५

Saturday, 28 June 2025

जैसे चुम्बक की सूई का मुख सदा उत्तर दिशा की ओर होता है, ---

 जैसे चुम्बक की सूई का मुख सदा उत्तर दिशा की ओर होता है, वैसे ही मेरी चेतना स्वाभाविक रूप से सदा परमशिव परमात्मा की ओर ही रहती है। वे उत्तर दिशा (सहस्त्रारचक्र से बहुत ऊपर ऊर्ध्वस्थ) में परम ज्योतिर्मय रूप में विराजमान हैं, और दक्षिणामूर्ति गुरु रूप में उनका अनुग्रह निरंतर वरष रहा है। मैं धन्य हूँ, मेरा यह जीवन धन्य है कि मुझे उनकी परम कृपा अनुभूत हो रही है।

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सांसारिक रूप से मैं विवश और विकल्पहीन हूँ। पता नहीं किस जन्म में क्या पाप किये थे, जो इस तमोगुणी संसार में जन्म लिया और घर-गृहस्थी, व कुटिल समाज में आकर त्रिशंकु की गति में फँस गया हूँ। कोई बात नहीं, यह इस जीवन का संध्याकाल है, फिर कभी इस ओर मुड़ कर भी नहीं देखूंगा। मेरा एकमात्र आश्रय परमशिव परमात्मा के पद्मपाद (चरण-कमल) हैं, जिनमें शरण मिली हुई है। सुख और शांति के एकमात्र स्त्रोत भी वे ऊर्ध्वस्थ परमशिव ही हैं। वे ही पुरुषोत्तम वासुदेव हैं, और वे ही श्रीराम हैं।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८:५६॥"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८:५७॥"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् --
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक। समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥
जो पुरुष मदाश्रित होकर सदैव समस्त कर्मों को करता है, वह मेरे प्रसाद (अनुग्रह) से शाश्वत, अव्यय पद को प्राप्त कर लेता है॥
मन से समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके मत्परायण होकर बुद्धियोग का आश्रय लेकर तुम सतत मच्चित्त बनो॥
मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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सतत परमात्मा का स्मरण करते हुए (भक्तियोग) हमें परमात्मा के ध्यान आदि का निरंतर अभ्यास (कर्मयोग) करना चाहिये। मच्चित्त होने पर (ज्ञानयोग) परमात्मा की कृपा से समस्त कठिनाइयाँ भी पार हो जायेंगी।
मन का परमात्मस्वरूप में समाहित होना ही गुरुकृपा है। इस गुरुकृपा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और विवेक जागृत होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण की चेतावनी भी हमें सदा याद रहे कि यदि अहंकारवश उनके उपदेश का पालन नहीं किया तो हम अपना ही नाश कर लेंगे। यहाँ नाश का यह अर्थ है कि अहंकारवश अपने जीवन के परम पुरुषार्थ को नहीं प्राप्त कर सकेंगे।
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परमात्मा रूपी महासागर में जल की एक बूंद की तरह इसी क्षण छलांग लगा लेते हैं। जो होगा सो देखा जाएगा। उनका आकर्षण बहुत अधिक प्रबल है। ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ जून २०२५

"अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥"

 "अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥"

अब इस संसार से मन तृप्त हो गया है, और कुछ भी नहीं चाहिये। सप्ताह में सातों दिन, दिन में चौबीस घंटे, हर क्षण चेतना परमात्मा से जुड़ी रहे और परमात्मा का स्मरण करते हुए उन्हीं में विलीन हो जाये। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई विचार भी मन में नहीं आये।
इस संसार के अनुभव अच्छे नहीं थे। दुबारा इधर मुड़कर देखने की भी इच्छा नहीं है।
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२४ जून २०२५
अब इस संसार से मन तृप्त हो गया है, और कुछ भी नहीं चाहिये। सप्ताह में सातों दिन, दिन में चौबीस घंटे, हर क्षण चेतना परमात्मा से जुड़ी रहे और परमात्मा का स्मरण करते हुए उन्हीं में विलीन हो जाये। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई विचार भी मन में नहीं आये।
इस संसार के अनुभव अच्छे नहीं थे। दुबारा इधर मुड़कर देखने की भी इच्छा नहीं है।
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२४ जून २०२५

भगवान यदि मुझसे प्रसन्न नहीं हैं तो कोई दूसरा भक्त ढूंढ़ लें ---

 भगवान यदि मुझसे प्रसन्न नहीं हैं तो कोई दूसरा भक्त ढूंढ़ लें। इससे अधिक भक्ति और समर्पण मेरे द्वारा संभव नहीं है। यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं।

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पुनश्च : --- सारी सृष्टि कृष्णमय है। वे ही यह विश्व बन गए हैं। कोई अन्य है ही नहीं। मेरे कारण किसी भी प्राणी को कोई कष्ट नहीं हो। मेरे रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरी प्रथम, अंतिम और एकमात्र प्रार्थना यही है कि "धर्म की जय हो और अधर्म का नाश हो"। जीवन और मृत्यु दोनों में मेरी चेतना परमात्मा के साथ एक रहे। इसके अतिरिक्त मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए।
पुनश्च: --- मेरी किसी भी कमी के लिए भगवान स्वयं ही जिम्मेदार हैं, मैं नहीं। मेरी हर कमी उन की ही कमी है, और मेरा हर गुण उनका ही गुण है। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ जून २०२५

"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।"

"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।"
यह कोई नारा मात्र ही नहीं, हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है। ईश्वर के सारे अवतार -- धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए ही अवतृत हुए हैं। सारे महान योगी इसी उद्देश्य के लिए साधना करते हैं। आत्मा का स्वधर्म होता है -- समर्पण द्वारा परमात्मा की प्राप्ति। यह परमात्मा की प्राप्ति यानि भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है, जिसके लिए हम साधना करते हैं। अनादि काल से भारत के सभी सम्राटों के शासन का लक्ष्य "धर्मरक्षा" ही था। भारत में ऐसे ऐसे महान राजा हुए हैं जिनके राज्य में कोई चोरी नहीं करता था, कोई मदिरापान नहीं करता था, और कोई किसी भी तरह का दुराचार नहीं करता था। धर्म क्या है, इसे मनुस्मृति और महाभारत में बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है। वैशेषिक सूत्रों में दी गयी इसकी परिभाषा सर्वमान्य है। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२६ जून २०२५

भगवान का बड़े से बड़ा आश्वासन ---

 भगवान का बड़े से बड़ा आश्वासन ---

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निम्न श्लोक स्वयं भगवान का आश्वासन है इस विश्व को। इससे बड़ा आश्वासन आज तक किसी ने भी नहीं दिया है। थोड़ा बहुत जो भी साधन हम करते है, वह इस संसार (भवसागर) के महाभय से हमारी रक्षा करेगा।
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"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महा भय से रक्षण करता है॥
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व्याख्या -- आरम्भका नाम 'अभिक्रम' है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम यानी आरंभ का नाश नहीं होता है। योगविषयक आरंभ का फल अनैकान्तिक (संशययुक्त) नहीं है। इसमें प्रत्यवाय (विपरीत फल) भी नहीं होता है। इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान (साधन) जन्म-मरण रूप महा संसारभय से हमारी रक्षा करता है।
On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
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वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह "प्रत्यवाय दोष" कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव) को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।
(उपरोक्त पंक्तियाँ लिखने से पूर्व मैंने दो महान भाष्यकारों के भाष्यों का स्वाध्याय किया था, इसलिए उनके भी अनेक शब्द और भाव यहाँ आ गये हैं। उन महान भाष्यकारों को नमन)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२५
पुनश्च : --- सभी से क्षमा याचना करता हूँ कि चाह कर भी इस विषय को मैं ठीक से समझा नहीं सका। यहाँ मेरा भाषा और शब्दों का ज्ञान काम नहीं आया। फिर भी जो समझना चाहते हैं वे सभी इसे समझ पायेंगे।

धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है ---

 जैसे जैसे मैं इस लोकयात्रा में आगे बढ़ता जा रहा हूँ, यह प्रत्यक्ष अनुभूत कर रहा हूँ कि धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। हम यथासंभव अपने धर्म का पालन करें, यही रक्षा हम अपने धर्म की कर सकते हैं। हमारा समाज विश्व का सबसे अधिक जागृत, संगठित और प्रबुद्ध समाज है। इसे जगाने की नहीं, स्वयं के जागने की आवश्यकता है। हम स्वयं तो जागते नहीं, और बातें करते हैं समाज को जगाने की। यह अनुचित और गलत है।

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एक षडयंत्र के अंतर्गत धर्म-निरपेक्षता के नाम पर कानूनी प्रावधानों द्वारा हमारे समाज को धर्म-शिक्षा से वंचित रखा गया है। जब हमारे बालक/बालिकाओं को धर्म की शिक्षा मिलने लगेगी तब हमारा समाज पुनश्च: चैतन्य हो जायेगा। धर्म ही हमारा जीवन है।
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हम एक शाश्वत आत्मा हैं, यह शरीर नहीं। आत्मा का धर्म है -- परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा। हम परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करेंगे तो समय के साथ स्वयं को परमात्मा के साथ एक पायेंगे। हम कोई पापी नहीं, हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् के द्वितीय अध्याय का पाँचवाँ मंत्र हमें अमृत पुत्र कहता है --
"युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥"
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गीता में भगवान कहते हैं --
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२:२२॥"
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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भगवान के चरण -चिह्नों का अनुसरण करते हुए मैं प्रार्थना करता हूँ कि अनादि ब्रह्म में हम सब का विलयन हो, परमात्मा की महिमा हम सब में व्यक्त हो, और हम सब परमात्मा के दिव्य धाम में निवास करें॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२४

मैं एक अज्ञात प्रेरणावश केवल आत्म-संतुष्टि के लिए कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ ---

 मैं एक अज्ञात प्रेरणावश केवल आत्म-संतुष्टि के लिए कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ। लिखने का अन्य कोई उद्देश्य नहीं है। एक अत्यधिक गहन जिज्ञासावश सनातन धर्म की सभी प्रमुख परम्पराओं के साहित्य का पर्याप्त स्वाध्याय, और प्रायः सभी प्रमुख संप्रदायों के महात्माओं के साथ सत्संग किया था।

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अब तो कोई अन्य है ही नहीं। एकमात्र अस्तित्व मेरे प्रियतम का है। एक अतृप्त प्यास और तड़प (अभीप्सा) बनी हुई है, जिस का कारण मैं समझने में असमर्थ हूँ। वह अभीप्सा और परमप्रेम ही इस जीवन को चला रहे हैं। जब तक वह अभीप्सा और परमप्रेम तृप्त नहीं होते मैं आप सब के मध्य में हूँ। फिर मुझे आप अपने स्वयं में ही पाओगे।
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अब और कुछ पढ़ने की इच्छा नहीं होती। भगवान की अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति और समर्पण -- ही मेरा आदर्श है। भगवान अपनी साधना स्वयं ही करते हैं, मैं तो एक निमित्त मात्र भी नहीं, उनका एक विचार और उनके साथ एक हूँ।
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भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी अगर है तो मेरी समझ और मेरी स्वयं की सृष्टि में ही है। आप सब को मंगलमय शुभ कामनाएँ, नमन और जयगुरु !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२२
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पुनश्च : --- एक अतृप्त प्यास व तड़प (अभीप्सा), और परमप्रेम -- ने ही मुझे अब तक जीवित रखा है। उनकी कभी तृप्ति नहीं हुई। अब समझ में आ रहा है, कि उन का कारण क्या है। वह वेदना और पीड़ा मेरे प्राणों में है। मेरे प्राण तो भगवती स्वयं है, जिन्होंने पूरी सृष्टि को धारण कर रखा है। उनकी कृपा से ही यह पीड़ा शांत होगी।

स्वधर्म और परधर्म व अन्य संबन्धित विषय ---

 स्वधर्म और परधर्म व अन्य संबन्धित विषय ---

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(१) परमात्मा से परमप्रेम, या आत्म-तत्व में स्थिति को ही हम "स्वधर्म" कह सकते हैं।
(२) इन्द्रिय सुखों की कामना और अहंकार की चेतना में जीना ही "परधर्म" है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार -- स्वधर्म में निधन होना श्रेयष्कर है, और परधर्म भयावह है। परधर्म में निधन से जीव को अत्यधिक भयावह कष्टों से गुजरना पड़ता है। स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है।
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"सर्वधर्म समभाव" क्या है? ---
यह किसी हिन्दुद्रोही सेकुलर मार्क्सवादी विचारक के मस्तिष्क की कल्पना है| धर्म तो एक ही है, वह अनेक कैसे हो सकता है? धर्म है और अधर्म है| धर्म का अर्थ Religion, मजहब या पंथ नहीं है।
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यदि पंथों और मज़हबों की भी तुलना करें तो जिस भी पंथ या मज़हब की साधना पद्धति से दैवीय और मानवीय गुणों का सर्वाधिक विकास होगा, वह पंथ ही सर्वश्रेष्ठ होगा। यही सिद्ध कर सकता है कि सर्वश्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, और सर्वधर्म समभाव क्या है। जो पंथ मनुष्य को असत्य और अन्धकार में ले जाए, वह किसी का आदर्श कैसे हो सकता है?
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निष्पक्ष रूप से हर मज़हब/पंथ के दो-दो व्यक्तियों को लिया जाए और उन्हें बाहरी प्रभाव से दूर एकांत में कुछ महीनों के लिए रखा जाए। सब से कहा जाए की एकांत में रहते हुए अपने अपने मजहब/पंथ की साधना करें। फिर उन पर निष्पक्ष अध्ययन और शोध किया जाए की किस पंथ वाले में करुणा, प्रेम, सद्भाव और आनंद आदि गुणों का सर्वाधिक विकास हुआ है। आज तक किसी भी पंथ की श्रेष्ठता और सर्वग्राह्यता पर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं हुआ है, जो होना ही चाहिए था।
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किसी का जो भी स्वभाविक गुण-दोष है वह भी उसका धर्म है। शरीर का भी धर्म है -- भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, और सेहत आदि। इन्द्रियों के भी धर्म हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के भी धर्म हैं। मन को यदि अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो मन इतना अधिक भटका देता है कि उस भटकाव से बाहर आना अति कठिन हो जाता है। मन नियंत्रण में है तो वह हमारा परम मित्र है, यह मन का धर्म है। बुद्धि का धर्म विवेक है, अन्यथा तो यह कुबुद्धि है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है, यह उसका धर्म है। यही चित्त की वृत्ति है, जिसके निरोध को योग कहा गया है। हमारा बल प्राणों का धर्म है। सब तरह की उलझनों को छोड़कर भगवान की शरण लेना ही सब धर्मों का परित्याग और शरणागति है। शरणागति भी बहुत बड़ा धर्म है। किसी का जो भी सर्वश्रेष्ठ स्वाभाविक गुण है वह उसका स्वधर्म है, जिसमें निधन को श्रेय दिया गया है।
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स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है, इसका उत्तर निष्ठावान को प्रत्यक्ष परमात्मा से मिलता है, बुद्धि से यह अगम है। नित्य परमात्मा का ध्यान करें, और स्वयं को हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनायें -- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक और आध्यात्मिक।
"धर्म" - धारण करने का विषय है, न कि सिर्फ चर्चा या वाद-विवाद का। जीवन में परमात्मा के प्रति परमप्रेम, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा-विश्वास; और उन्हें पाने की अभीप्सा होगी, तभी जीवन की सार्थकता है, तभी जीवन में "धर्म" का अवतरण होगा।
परमात्मा हमारे जीवन के केन्द्रबिन्दु हों। निरंतर उनके प्रति समर्पण का भाव हो।
जिनके हृदय में परमात्मा और सनातन धर्म के प्रति प्रेम नहीं हैं, मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है।
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मैं अपने लघु आध्यात्मिक लेखों के साथ-साथ प्रखर राष्ट्र-भक्ति के ऊपर भी लिखता हूँ, क्योंकि मेरे लिए भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है। भारत के बिना आध्यात्म की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है, और भारत का भविष्य ही इस पृथ्वी का भविष्य है। इस पृथ्वी का भविष्य ही इस सृष्टि का भविष्य है। भारत का पतन - धर्म का पतन है, और भारत का उत्थान - धर्म का उत्थान है। भारत और आध्यात्म भी एक दूसरे के पूरक हैं।
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धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२५

अलादीन के चिराग का जिन्न और हमारा चित्त दोनों एक जैसे ही हैं ---

 अलादीन के चिराग का जिन्न और हमारा चित्त दोनों एक जैसे ही हैं...

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अलादीन ने चिराग को रगडा तो एक जिन्न (ब्रह्मराक्षस की श्रेणी का एक प्रेत) प्रकट हुआ| जिन्न ने कहा ... मेरे आक़ा, मुझे हुक्म दो मैं क्या काम करूँ? अलादीन जो भी आदेश देता, जिन्न उसे तुरंत पूरा कर देता| जिन्न ने यह भी कहा कि जब तक तुम मुझसे निरंतर काम करवाते रहोगे मैं तब तक तुम्हारे वश में हूँ, जब कोई काम नहीं रहेगा तब मैं गला घोट कर तुम्हारी ह्त्या कर दूंगा| मनुष्य का चित्त वही जिन्न है| इसे निरंतर कहीं ना कहीं लगाए रखना पड़ता है| खाली होते ही यह मनुष्य को वासनाओं के जाल में ऐसा फँसाता है जहाँ से बाहर निकलना अति दुर्धर्ष हो जाता है| चित्त स्वयं को वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है| वासनायें ही चित्त की वृत्तियाँ हैं जिन के निरोध को "योगः चित्तवृत्ति निरोधः" कहा गया है| इस की वृत्तियाँ अधोगामी हैं, जिन्हें साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बना देने पर यह मनुष्य को परमात्मा तक ले जाता है|
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भगवान श्रीकृष्ण जो साकार रूप में परम ब्रह्म हैं, का आदेश है ....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||
अर्थात् मुझमें ही चित्त लगा चुकने पर तूँ मेरी कृपा से इस संसार रूपी दुर्ग के सारे संकटों को पार कर लेगा| पर यदि अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मागेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा|
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चित्त का अधिष्ठान "सच्चिदानन्द ब्रह्म" ही है| सारी सृष्टि का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हम सच्चिदानंद परमात्मा में स्थित हो जाएँ| सांसारिक भोगों के लिये यह संसार नहीं बनाया गया है, यह तो परमेश्वर के ज्ञान के लिये बनाया गया है| परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को सब देखते हैं, पर उसे कोई नहीं देखता| भगवान के अनुग्रह से ही हम इस मायावी संसार को पार कर सकते हैं, निज प्रयास से नहीं| दूसरे शब्दों में जब तक हम जीव की चेतना में हैं, माया का अनंत आवरण नहीं हटेगा| परमात्मा को समर्पित होने के बाद ही उनकी ही कृपा से यह अनंत मायाजाल दूर होगा| अनंत विघ्नों को कहाँ तक पार करेंगे? अतः प्रकृति के आधीन न रहकर परमात्मा के आधीन रहें|
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जहाँ अहंकार होगा वहाँ विनाश ही होगा| भगवान के वचन प्रमाण हैं| उनसे ऊपर कुछ नहीं है| अतः उनकी आज्ञा माननी ही पड़ेगी ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||
अर्थात् .... इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो||
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मेरा बहुत अच्छा प्रेम एक बहुत ही उच्च कोटि के शक्ति-साधक महात्मा से था| अब तो वे इस संसार में नहीं हैं| दो बार नवरात्रों में उनके साथ रहा था| उनका आदेश था कि मैं सत्यनिष्ठा से कम से कम एकसौ माला नित्य अपने गुरुप्रदत्त बीजमंत्र की मानसिक रूप से जपूँगा| वे कहते थे कि एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए| हर समय भगवती का जप चलते रहना चाहिए| चित्त को अन्यत्र कहीं भी जाने का अवसर नहीं देना चाहिए|
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स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में है, संसार में नहीं| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२०

भारत को देसी गायों के गोवंश से विहीन करने का अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र ---

 जिस तरह भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था और कृषि व्यवस्था नष्ट कर दी गयी थी, उसी तरह भारत को देसी गायों के गोवंश से विहीन करने का तो निश्चित रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है| एक देसी गाय को बहुत ऊँची कीमत पर खरीदा जाता है और उससे दुगुणी कीमत पर गोमांस का निर्यात कर दिया जाता है|

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योरोपीय देशों में भारत की देसी गाय का मांस बहुत अधिक लोकप्रिय है पर वहाँ काटने के लिए गायें ही नहीं बची हैं, इसलिए वे भारत से गोमांस का आयात कर रहे है| विश्व में भारत गोमांस का सबसे बड़ा निर्यातक देश है| जब कोई यह प्रश्न उठाता है कि दूध कहाँ से आएगा तो कहा जाता है कि ऑस्ट्रेलिया से विलायती गायों का चाहे जितना दूध मोल मिल जाएगा| जहाँ गायें काटी जाती है उन कत्लखानों के मालिक बड़े बड़े प्रभावशाली सत्तासीन लोग हैं| उन्हें अपने लाभ से ही मतलब है| पश्चिम की सोच यह कि जो ईसाई नहीं हैं वे नष्ट भी हो जाए तो कुछ फर्क नहीं पड़ता|
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धरती की प्राकृतिक खाद गोबर है| गोबर की खाद तो मिलती नहीं है अतः खूब रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिससे केंसर की बीमारी बढ़ रही है| बहुत तेज़ी से गोवंश नष्ट हो रहा है| गोवंश के नष्ट होते ही भारत भी नष्ट हो जाएगा| अब न तो गौचर भूमियाँ बची हैं और न कुओं की खेळ जहाँ गायें पानी पीती थीं|
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यह सभ्यता विनाश की ओर जा रही है जिसे कोई नहीं रोक सकता| जो मनुष्यता गोमाता की इतनी क्रूरता से हत्या कर रही है वह अगर नष्ट भी हो जाए कोई फर्क नहीं पडता| कम से कम दूसरे प्राणी तो सुख चैन से रहेंगे| नई मनुष्यता निश्चित रूप से अच्छी होगी|
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ॐ ॐ ॐ ||
२९ जून २०१७

चित्त को कहाँ लगाएँ ---

 चित्त को कहाँ लगाएँ ---

अलादीन ने चिराग को रगडा तो एक जिन्न प्रकट हुआ| जिन्न ने कहा मेरे आक़ा मुझे हुक्म दो मैं क्या काम करूँ| अलादीन जो भी आदेश देता, जिन्न उसे तुरंत पूरा कर देता| जिन्न ने यह भी कहा कि जब तक तुम मुझसे निरंतर काम करवाते रहोगे मैं तब तक तुम्हारे वश में हूँ, जब कोई काम नहीं रहेगा तब मैं गला घोट कर तुम्हारी ह्त्या कर दूंगा|
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मनुष्य का चित्त वही जिन्न है| इसे निरंतर कहीं ना कहीं लगाए रखना पड़ता है| खाली होते ही यह मनुष्य को वासनाओं के जाल में ऐसा फँसाता है जहाँ से बाहर निकलना अति दुर्धर्ष हो जाता है| इस चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग साधना कहा गया है| इस की वृत्तियाँ अधोगामी हैं, जिन्हें साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बना देने पर यह मनुष्य को परमात्मा तक ले जाता है|
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भगवान श्रीकृष्ण जो साकार रूप में परम ब्रह्म हैं, का आदेश है ....
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ||"
अर्थात् मुझमें ही चित्त लगा चुकने पर तूँ मेरी कृपा से इस संसार रूपी दुर्ग के सारे संकटों को पार कर लेगा| पर यदि अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मागेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा|
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अतः चित्त का अधिष्ठान "सच्चिदानन्द ब्रह्म" ही है| सारी सृष्टि का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हम सच्चिदानंद परमात्मा में स्थित हो जाएँ| सांसारिक भोगों के लिये यह संसार नहीं बनाया गया है, यह तो परमेश्वर के ज्ञान के लिये बनाया गया है|
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परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को सब देखते हैं, पर उसे कोई नहीं देखता|
भगवान के अनुग्रह से ही हम इस मायावी संसार को पार कर सकते हैं, निज प्रयास से नहीं| दूसरे शब्दों में जब तक हम जीव की चेतना में हैं, माया का अनंत आवरण नहीं हटेगा| परमात्मा को समर्पित होने के बाद ही उनकी ही कृपा से यह अनंत मायाजाल दूर होगा| अनंत विघ्नों को कहाँ तक पार करेंगे? अतः प्रकृति के आधीन न रहकर परमात्मा के आधीन रहें|
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जहाँ अहंकार होगा वहाँ विनाश ही होगा| भगवान के वचन प्रमाण हैं| उनसे ऊपर कुछ नहीं है| अतः उनकी आज्ञा माननी ही पड़ेगी ....."निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्" |
स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, संसार में नहीं|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ जून २०१६

शबद अनाहत बागा ......

 शबद अनाहत बागा ......

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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए| यह उच्चतम साधना है|
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भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर निश्चिन्त होकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बाँग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिलने ही वाले हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ....
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै ||
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमणि यों तन लागी |
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिणी जागी ||
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा |
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा ||"
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{{ गगन मंडल में घर करने का अर्थ है अपनी चेतना को समष्टि में विस्तृत कर दें| हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हैं| जो इस चेतना में स्थित हैं वे अवधूत हैं| इसी भाव में स्थित होकर ध्यान करें|
खेचरी मुद्रा में सहस्त्रार से रस टपकता है जो अमृत है| उसका पान कर योगी की देह को अन्न जल की आवश्यकता नहीं होती|
बंक नाल सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें जागृत होकर कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होती है|
मूलबंध .... गुदा और जननेन्द्रियों का संकुचन करना है|
सर गगन समाना अर्थात मेरुदंड को उन्नत रखकर ठुड्डी भूमि के समानांतर रखना|
सुखमणि ... आनंद की अनुभूति|
पलीता यानि बारूद में विस्फोट के लिए लगाई आग्नि| काम क्रोध जल कर भस्म हो गए हैं|
जोगिणी जागी अर्थात् कुण्डलिनी जागृत हुई|
दरीबा फारसी भाषा में उस स्थान को कहते थे जहाँ अनमोल मोती बिकते थे| पर कालान्तर में उसे पान खाकर गपशप करने वाले सार्वजनिक स्थान को कहा जाने लगा|
अनाहत शब्द बाँग दे रहा है अतः अब ईश्वर प्राप्ति में कोई संशय नहीं है| }}
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ जून २०१६