भगवान से परमप्रेम की अवस्था में हम जो कुछ भी करेंगे वह अच्छा ही होगा ---
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जिस प्रकार सूखी लकड़ी के दो टुकड़ों के लगातार घर्षण से अग्नि प्रज्ज्वलित होकर उस लकड़ी को जला देती है, वैसे ही भक्तिपूर्वक किया हुआ साधन ज्ञानाग्नि को उद्दीप्त कर अज्ञानरूपी ईंधन को भस्म कर देता है| स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी बापस आत्मा में ही स्थिर करते रहना चाहिए|
जब हम परमात्मा की चेतना में होते हैं, तब हमारे माध्यम से परमात्मा जो भी कार्य करते हैं, वह पुण्य होता है।
जब हम राग-द्वेष, लोभ और अहंकार के वशीभूत होकर कुछ भी कार्य करते हैं, वह पाप होता है।
१२ मार्च २०२०
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