Saturday, 31 July 2021

(पुनर्प्रस्तुत) उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग---

(पुनर्प्रस्तुत)

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग---
----------------------------------
आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है जिसका रहस्य प्रभु कृपा से ध्यान योग साधक जानते हैं| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है|
.
उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है|
संत पलटूदास जी कहते हैं कि उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है| पर उस ज्योति के दर्शन और उस नाद का श्रवण सद्गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं करा सकता|
>
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ......
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
>
पानी का कुआँ तो सीधा होता है पर यह उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का नित्य निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ..... ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ..... अनाहत नादब्रह्म है| यही राम नाम की ध्वनी है|
>
'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सदगुरुओं के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है|
.
बाहर हम जो दीपक जलाते हैं वे इसी कूटस्थ ज्योति के प्रतीक मात्र हैं| बाहर के घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उसी कूटस्थ अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं|
>
ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं|
ब्रह्म के दो स्वरुप हैं| पहला है "शब्द ब्रह्म" और दूसरा है "ज्योतिर्मय ब्रह्म"| दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| आज्ञा चक्र में नियमित रूप से ध्यान लगाने से ही ज्योतिर्मय और शब्द ब्रह्म की अनुभूति होती है|
>
प्रिय निजात्मगण, आप सब की भावनाओं को नमन और मेरे लेख पढने के लिए आप सब का अत्यंत आभार| आप सब सदा सुखी एवं सम्पन्न रहें| आप की कीर्ति सदा अमर रहे|
.
ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
३० जून २०१६

1 comment:

  1. रायः यही भाव वेद में है। कटोरा, चम्मच आदि को चमस कहा है। आकाश में ऊपर से सूर्य किरण का प्रवाह कर रहा है, मानों कटोरा को उलट दिया गया हो। पूरा बर्तन उलट कर दाने देने वाले शिव को अवढरदानी (अव-दान करने वाला) कहा जाता है।
    तिर्यग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः (ऋक्, १०/८/९, निरुक्त, १२/३८)
    अध्यात्म अर्थ में सिर भी उलटे घड़े या कटोरा जैसा है, जो शरीर को नियन्त्रित करता है।
    ऋते नये चमसमैरयन्त (अथर्व, ६/४७/३, तैत्तिरीय संहिता, ३/१/९/२, काण्व संहिता, ३०/६)
    चमस समस्त आयु है। यज्ञ में चमस स्थित सोम को ४ भागों में विभक्त किया जाता है, जिसका अर्थ जीवन को ४ भागों में बांटना है (४ आश्रम)।
    प्राणाधानाभ्यामेव उपांश्वन्तर्यामौ निरमिमीत। व्यानात् उपांशु सवनम्, वाच ऐद्रवायवम्, पक्ष क्रतुभ्याम् मैत्रावरुणम्। श्रोत्राद् आश्विनम्, चक्षुशः शुक्रामन्थिनौ आत्मन आग्रायणम्, अङ्गेभ्य उक्थम्, ध्रुवम् प्रतिष्ठाया ऋतुपात्रे। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/१/२)
    (माननीय श्री अरुण उपाध्याय)

    ReplyDelete