Friday, 3 November 2017

हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं .....

हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं .....
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हम यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं| परमात्मा के साथ वैसे ही एक हैं, जैसे महासागर में जल की एक बूँद| जल की यह बूँद जब तक महासागर से जुड़ी हुई है, अपने आप में स्वयं ही महासागर है| पर महासागर से दूर होकर वह कुछ भी नहीं है| वैसे ही परमात्मा से दूर होकर हम कुछ भी नहीं हैं|
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यह सृष्टि ..... प्रकाश और अन्धकार की मायावी लीला का एक खेल मात्र है| परमात्मा ने समष्टि में हमें अपना प्रकाश फैलाने और अपने ही अन्धकार को दूर करने का दायित्व दिया है| उसकी लीला में हमारी पृथकता का बोध, माया के आवरण के कारण एक भ्रममात्र है|
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हमारा स्वभाव परम प्रेम है| जब भी समय मिले शांत स्थिर होकर बैठिये| कमर सीधी ओर दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रखिये| अपनी चेतना को इस देह से परे, सम्पूर्ण सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी है, उसके साथ जोड़ दीजिये| हम यह देह नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं|
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प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को कूटस्थ में यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में रखिये| वहाँ दिखाई दे रही ब्रह्मज्योति और सुन रही प्रणव ध्वनि रूपी अनाहत नाद हम स्वयं ही हैं, यह नश्वर देह नहीं| हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह ज्योति और नाद हम स्वयं हैं, यह देह नहीं ..... यह भाव बार बार कीजिये| यह हमारा ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य कई बार इसकी साधना कीजिये|
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परमात्मा के संकल्प से यह सृष्टि बनी है| हम भी उसके अमृतपुत्र और उसके साथ एक हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह हमारा ही है| हम कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| परमात्मा का संकल्प ही हमारा संकल्प है| प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है|
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निरंतर भगवान का स्मरण करते रहो| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर स्मरण प्रारम्भ कर दो| याद रखो कि भगवान स्वयं ही अपना स्मरण कर रहे हैं| उन्हीं की चेतना में रहो| जैसे एक मोटर साइकिल की देखभाल करते हैं वैसे ही इस देहरूपी मोटर साइकिल की भी देखभाल करते रहो| यह देह एक motor cycle ही है जिसकी maintenance भी एक कला है, उस कला से इस motor cycle की maintenance करते रहो क्योंकि यह लोकयात्रा इसी पर पूरी करनी है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ नवम्बर २०१७

1 comment:

  1. योगसाधना में प्राण तत्व को स्थिर कर भगवान की परम कृपा से ..... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार पर नियंत्रण कर सकते हैं| इसके पश्चात ही "एकोsहं द्वितीयोनास्ति" का भाव आता है| प्राणों की स्थिरता ही शिवत्व में स्थिति है ..... जब हम सम्पूर्ण समष्टि के साथ एक हो जाते हैं, तब हम पाते हैं कि सिर्फ एक मैं ही हूँ जो जड़-चेतन में सर्वत्र व्याप्त है, मेरे सिवाय अन्य कोई भी नहीं है| यही शिवत्व है, यही निःसंगत्व है, और यही समाधि की उच्चतम स्थिति है|
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    ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

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