हमारी दृष्टि हर समय अपने लक्ष्य की ओर रहे। इधर-उधर कहीं भी दृष्टि न पड़े। हमारा लक्ष्य है परमात्मा। उनके जितना हमारा हितैषी अन्य कोई भी नहीं है।
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मेरे में लाखों कमियाँ हैं, लेकिन भगवान ने उनकी ओर कभी ध्यान भी नहीं दिया है। मेरा अनुभव तो यह है कि भगवान हमारे में सिर्फ हमारी अभीप्सा को ही देखते हैं, अन्य बातों की ओर नहीं। वे अपनी महान आत्माओं से हमारा सत्संग भी कभी कभी करवा ही देते हैं।मेरे ही प्रिय निजात्मगण, कूटस्थ में मैं आपसे और अधिक समीप ही नहीं, आपके साथ एक हूँ। आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है। मैं आपके निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हूँ। आप भी मेरे साथ एक हैं। मेरे हृदय का पूर्ण प्रेम आपको समर्पित है।
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मेरुदंड में प्राण-तत्व के रूप में प्रवाहित हो रही कुंडलिनी महाशक्ति कभी भगवती महाकाली, और कभी भगवती श्रीविद्या के रूप में व्यक्त होती हैं। भगवती महाकाली भगवान श्रीकृष्ण की, और भगवती श्रीविद्या भगवान परमशिव की उपासना करवाती हैं। भगवान की उच्चतम अभिव्यक्ति कूटस्थ में है। कूटस्थ ही परमशिव हैं, और वे ही पुरुषोत्तम हैं। दोनों ही ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में व्यक्त हो रहे हैं। गीता के पुरुषोत्तम योग में भगवान स्वयं कहते हैं ---
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल सङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति यानि कूटस्थ चैतन्य में हम निरंतर रहें ---
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बिना किसी तनाव के, शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी हुई दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते-करते, एक दिन ध्यान में विद्युत् आभा सदृश्य देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। यह ब्रहमज्योति -- इस सृष्टि का बीज, और परमात्मा का द्वार है। इसे 'कूटस्थ' कहते हैं। इस अविनाशी ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणवनाद में लय रहना 'कूटस्थ चैतन्य' है। यह सर्वव्यापी, निरंतर गतिशील, ज्योति और नाद - 'कूटस्थ ब्रह्म' हैं। इस कूटस्थ चैतन्य में निरंतर सदा प्रयासपूर्वक बने रहें, हमारा यह मनुष्य जीवन धन्य हो जाएगा।
गीता में भगवान कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् - परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥ इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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भगवान की महिमा अपार है। अनंत जन्मों तक उनकी महिमा निरंतर लिखता रहूँ तो भी उनकी महिमा समाप्त नहीं होने वाली। इसलिए यहाँ स्वयं को विराम दे रहा हूँ। मुझे स्वयं को भी नहीं पता कि मैंने क्या लिखा है। लेकिन जो भी लिखा है वह सही ही है, क्योंकि इसके पीछे उनकी ही प्रेरणा है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२३
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