परमेश्वरार्पण बुद्धि ......
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"परमेश्वरार्पण बुद्धि" .... यह शब्द मैनें पहली बार जोधपुर के स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के एक लेख में पढ़ा था| बड़ा अद् भुत शब्द है जिसने मेरे अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला| उनका अभिप्राय यह था कि जब सारा जीवन ही अर्चना बन जाता है, जहाँ शास्त्रोक्त वर्णाश्रम के धर्म को परमेश्वर की अर्चना के लिये, उनकी आज्ञापालन के लिये ही किया जाता है, न फल की इच्छा और न कर्म में आसक्ति रहे ...... वह "परमेश्वरार्पण बुद्धि" है|
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जब साधक स्वयं के लिए कुछ न चाह कर सब कुछ यानि कर्ताभाव और साधना का फल भी परमात्मा को समर्पित कर देता है तभी उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और परमात्मा उस पर प्रसन्न होते हैं| परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा के अतिरिक्त हमें और चाहिए भी क्या?
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हे परमशिव, हमारी बुद्धि परमेश्वरार्पिता हो, चैतन्य में सिर्फ आप का ही अस्तित्व रहे, आप से पृथक अन्य कुछ भी न हो| आपसे विमुखता और पृथकता कभी न हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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"परमेश्वरार्पण बुद्धि" .... यह शब्द मैनें पहली बार जोधपुर के स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के एक लेख में पढ़ा था| बड़ा अद् भुत शब्द है जिसने मेरे अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला| उनका अभिप्राय यह था कि जब सारा जीवन ही अर्चना बन जाता है, जहाँ शास्त्रोक्त वर्णाश्रम के धर्म को परमेश्वर की अर्चना के लिये, उनकी आज्ञापालन के लिये ही किया जाता है, न फल की इच्छा और न कर्म में आसक्ति रहे ...... वह "परमेश्वरार्पण बुद्धि" है|
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जब साधक स्वयं के लिए कुछ न चाह कर सब कुछ यानि कर्ताभाव और साधना का फल भी परमात्मा को समर्पित कर देता है तभी उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और परमात्मा उस पर प्रसन्न होते हैं| परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा के अतिरिक्त हमें और चाहिए भी क्या?
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हे परमशिव, हमारी बुद्धि परमेश्वरार्पिता हो, चैतन्य में सिर्फ आप का ही अस्तित्व रहे, आप से पृथक अन्य कुछ भी न हो| आपसे विमुखता और पृथकता कभी न हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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