धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है| जिससे परमात्मा का
साक्षात्कार नहीं होता वह धर्म नहीं, अधर्म है| हमारे भी जीवन का प्रथम,
अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा को उपलब्ध यानि पूर्णतः समर्पित होकर
परमात्मा के साथ एक होना है| हमारा जीवन धर्ममय हो|
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मैनें देश-विदेश में यह प्रश्न अनेक लोगों से पूछा है कि धर्म का उद्देश्य क्या है? सिर्फ भारत के संत स्वभाव के कुछ लोगों ने ही यह उत्तर दिया कि धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है, अन्यथा प्रायः सभी का इनमें से एक उत्तर था ..... (१) एक श्रेष्ठतर मनुष्य बनना, (२) जन्नत यानि स्वर्ग की प्राप्ति, (३) आराम से जीवनयापन, (४) सुख, शांति और सुरक्षा|
भारत में भी अधिकाँश लोगों का मत है .... बच्चों का पालन पोषण करना, दो समय की रोटी कमाना, कमा कर घर में चार पैसे लाना आदि ही धर्म है| यदि भगवान का नाम लेने से घर में चार पैसे आते हैं तब तो भगवान की सार्थकता है, अन्यथा भगवान बेकार है| अधिकाँश लोगों के लिए भगवान एक साधन है जो हमें रुपये पैसे प्राप्त कराने योग्य बनाता है, साध्य तो यह संसार है|
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सिर्फ भारत में ही, वह भी सनातन हिन्दू धर्म के कुछ अति अति अल्पसंख्यक लोगों के अनुसार ही परमात्मा की प्राप्ति यानि परमात्मा को उपलब्ध होना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है| परमात्मा की प्राप्ति का अर्थ है .... अपने अस्तित्व का परमात्मा में पूर्ण समर्पण| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही भगवान को अहैतुकी प्रेम करता है| सौभाग्य से हम भी उन अति अति अल्पसंख्यक लोगों में आते हैं| हम भीड़ का भाग नहीं हैं|
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मेरा यह स्पष्ट मत है कि जिससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती वह धर्म नहीं, अधर्म है| यदि हमने सारे ग्रंथों का अध्ययन कर लिया, खूब भजन-कीर्तन कर लिए, खूब धर्म-चर्चाएँ कर लीं, और खूब तीर्थ यात्राएँ कर लीं, पर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया है तो सब व्यर्थ हैं|
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जीव ही नहीं, सारी सृष्टि और सारी सृष्टि से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| हम सब भी उस परमात्मा के अंश हैं| अंश भी समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकता है, जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर महासागर बन जाती है, वैसे ही जीव भी परमात्मा में समर्पित होकर परमात्मा ही बन जाता है| परमात्मा ही सर्वस्व है|
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जब हम किसी चीज की कामना करते हैं, तब परमात्मा ही उस कामना के रूप में आ जाते हैं, पर स्वयं का बोध नहीं कराते| हम जब तक कामनाओं पर विजय नहीं पाते तब तक परमात्मा का बोध नहीं कर सकते| परमात्मा को प्रेम का विषय बना कर ही कामनाओं को जीत सकते हैं| काम, क्रोध, लोभ, मोह और राग-द्वेष ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं| परमात्मा तो नित्य प्राप्त है| परमात्मा ही हमारा स्वरूप है| जीव ही नहीं, समस्त सृष्टि ही परमात्मा है, हम स्वयं भी वह स्वयं हैं| हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है| उस अज्ञात परमात्मा को अपने से एक समझते हुए ही उससे पूर्ण प्रेम और समर्पण करना होगा| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७
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मैनें देश-विदेश में यह प्रश्न अनेक लोगों से पूछा है कि धर्म का उद्देश्य क्या है? सिर्फ भारत के संत स्वभाव के कुछ लोगों ने ही यह उत्तर दिया कि धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है, अन्यथा प्रायः सभी का इनमें से एक उत्तर था ..... (१) एक श्रेष्ठतर मनुष्य बनना, (२) जन्नत यानि स्वर्ग की प्राप्ति, (३) आराम से जीवनयापन, (४) सुख, शांति और सुरक्षा|
भारत में भी अधिकाँश लोगों का मत है .... बच्चों का पालन पोषण करना, दो समय की रोटी कमाना, कमा कर घर में चार पैसे लाना आदि ही धर्म है| यदि भगवान का नाम लेने से घर में चार पैसे आते हैं तब तो भगवान की सार्थकता है, अन्यथा भगवान बेकार है| अधिकाँश लोगों के लिए भगवान एक साधन है जो हमें रुपये पैसे प्राप्त कराने योग्य बनाता है, साध्य तो यह संसार है|
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सिर्फ भारत में ही, वह भी सनातन हिन्दू धर्म के कुछ अति अति अल्पसंख्यक लोगों के अनुसार ही परमात्मा की प्राप्ति यानि परमात्मा को उपलब्ध होना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है| परमात्मा की प्राप्ति का अर्थ है .... अपने अस्तित्व का परमात्मा में पूर्ण समर्पण| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही भगवान को अहैतुकी प्रेम करता है| सौभाग्य से हम भी उन अति अति अल्पसंख्यक लोगों में आते हैं| हम भीड़ का भाग नहीं हैं|
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मेरा यह स्पष्ट मत है कि जिससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती वह धर्म नहीं, अधर्म है| यदि हमने सारे ग्रंथों का अध्ययन कर लिया, खूब भजन-कीर्तन कर लिए, खूब धर्म-चर्चाएँ कर लीं, और खूब तीर्थ यात्राएँ कर लीं, पर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया है तो सब व्यर्थ हैं|
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जीव ही नहीं, सारी सृष्टि और सारी सृष्टि से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| हम सब भी उस परमात्मा के अंश हैं| अंश भी समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकता है, जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर महासागर बन जाती है, वैसे ही जीव भी परमात्मा में समर्पित होकर परमात्मा ही बन जाता है| परमात्मा ही सर्वस्व है|
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जब हम किसी चीज की कामना करते हैं, तब परमात्मा ही उस कामना के रूप में आ जाते हैं, पर स्वयं का बोध नहीं कराते| हम जब तक कामनाओं पर विजय नहीं पाते तब तक परमात्मा का बोध नहीं कर सकते| परमात्मा को प्रेम का विषय बना कर ही कामनाओं को जीत सकते हैं| काम, क्रोध, लोभ, मोह और राग-द्वेष ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं| परमात्मा तो नित्य प्राप्त है| परमात्मा ही हमारा स्वरूप है| जीव ही नहीं, समस्त सृष्टि ही परमात्मा है, हम स्वयं भी वह स्वयं हैं| हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है| उस अज्ञात परमात्मा को अपने से एक समझते हुए ही उससे पूर्ण प्रेम और समर्पण करना होगा| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७
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