परमात्मा के प्रकाश का निज जीवन में निरंतर विस्तार ही परम-धर्म है। प्रकाशमय हो जाना ही भगवत्-प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है। जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, अनंतता में व उससे भी परे परमात्मा ही परमात्मा हैं। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। हम सब यह भौतिक शरीर नहीं परमात्मा की अनंतता और उससे भी परे का सम्पूर्ण अस्तित्व हैं। पूरी अनंतता और सम्पूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा है। परमात्मा स्वयं ही यह प्रकाश और अंधकार बन गए हैं। हमें यह जन्म ही इसीलिए मिला है कि हम अपने निज जीवन में छाये हुए अंधकार को दूर करें।
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परमात्मा का आज के लिए यही संदेश है, जो वे मुझे भी अपना एक माध्यम बना कर दे रहे हैं। आज का पूरा दिन और पूरी रात्रि ही उत्सव का पर्व है। हर क्षण आनंद में रहें। मैं आज भोर में जगन्माता की गोद में सोता हुआ वैसे ही उठा हूँ जैसे एक अबोध शिशु अपनी माता की गोद में से सोकर उठता है। जब से सोकर उठा हूँ तभी से परमात्मा ही परमात्मा की अनुभूतियाँ हो रही हैं। चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है।
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स्वयं जगन्माता ने मुझे बताया है कि सृष्टि में अंधकार इसी लिये है, क्योंकि सृष्टि के संचालन के लिए यह आवश्यक है। अंधकार के बिना प्रकाश नहीं हो सकता, और प्रकाश के बिना अंधकार नहीं हो सकता। यह सृष्टि प्रकाश और अंधकार दोनों का ही एक खेल है। अंधकार और प्रकाश दोनों में से एक भी नहीं रहेगा तो यह सृष्टि ही समाप्त हो जाएगी। परमात्मा स्वयं ही यह प्रकाश और अंधकार हैं। लेकिन वे चाहते हैं कि हम अपने निज जीवन में छाये हुए अंधकार को दूर करें। यही इस सृष्टि का उद्देश्य है।
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जहाँ तक हो सके, आज की पूरी रात सोयें नहीं। चाहे दिन में पर्याप्त विश्राम कर लें, लेकिन यथा संभव पूरी रात जागकर भगवान का भजन करें। वृद्धों, बच्चों, बीमारों और अशक्त जनों को इसमें छूट है। वर्ष में चार रात्रियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें किया गया पुण्य अक्षय होता है। वे रात्रियाँ हैं --- (१) दीपावली (कालरात्रि), (२) महाशिवरात्रि (महारात्रि) (३) होली (दारुणरात्री) (४) जन्माष्टमी (मोहरात्रि)।
आज की रात्रि कालरात्रि है। इसमें जूआ नहीं खेलें, शराब नहीं पीयें, सात्विक भोजन करें, ब्रह्मचर्य का पालन करें, और निरंतर भगवान को अपनी स्मृति में रखें।
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यदि अन्तःकरण में काम-वासना और अन्य विकार विक्षेप उत्पन्न करते हैं, तो -- अपना आहार सात्विक लें, कुसंग का त्याग करें, सत्संग करें, और महाकाली की आराधना उनके बीजमंत्र "ॐ क्लीं" से करें। आपके बुरे विचारों का शमन होगा। यदि आप बुरे विचारों को छोड़े बिना ही महाकाली की आराधना करेगे तो महाकाली आपका स्वयं का ही महाविनाश कर देगी, और आपके मस्तिष्क में एक ऐसी विकृति उत्पन्न कर देगी जो इस जीवन में ठीक नहीं हो सकती, उसे ठीक करने के लिए आपको दूसरा जन्म ही लेना होगा। अतः यदि आप अपने बुरे विचारों पर नियंत्रण नहीं कर सकते तो महाकाली की आराधना न करें।
"महाकाली तो एक कल्पवृक्ष हैं, जिसके नीचे आप जो भी चाहोगे वह स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। कुछ मांगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। लेकिन यदि आपके आचार-विचार सही नहीं हैं तो मामला ही उलट जाएगा।"
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भगवान श्रीकृष्ण की आराधना का बीजमंत्र भी "ॐ क्लीं" है। यह वही बीज है जो भगवती महाकाली का भी है। इस बीज मंत्र का जप करते हुए भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें। उस समय भी अन्तःकरण में पवित्रता होनी चाहिए, अन्यथा कामदेव आपको पकड़ लेगा, और भटका देगा।
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जिन्हें आत्म-साक्षात्कार चाहिए, उन्हें भगवती महासरस्वती की आराधना "ॐ ऐं" बीजमंत्र से करनी चाहिए। अपने सद्गुरु को, और अपने सांसारिक पिताजी को भी इसी मंत्र से प्रणाम करते हैं।
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सतयुग में समुद्र-मंथन से माँ महालक्ष्मी का इस दिन प्राकट्य हुआ था, इसलिए इस दिन महालक्ष्मी का पूजन होता है। महालक्ष्मी सारे सद्गुण प्रदान करती हैं।
उनकी आराधना का बीजमंत्र "ॐ ह्रीं" है।
भगवती भुवनेश्वरी और श्री-विद्या का बीजमंत्र भी यही है। अपनी सांसारिक माता को भी इसी मंत्र से प्रणाम करते हैं।
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भगवान श्री राम की आराधना "रां" बीजमंत्र के ध्यान से होती है। उनका पूरा मंत्र "रां रामाय नमः" है। लोकमान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम इसी दिन लौटे थे। अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। इसीलिए दीपावली मनाई जाती है। मुझे इतना ही पता है। और प्रश्न मुझसे न पूछें। मैं अकिंचन आपके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकूँगा।
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जिन्होंने श्रीविद्या (भगवती राजराजेश्वरी श्रीललिता महात्रिपुरसुंदरी) की दीक्षा ले रखी है वे श्रीविद्या के मंत्रों का जप करें। आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम दीक्षा है, इसके पश्चात और कोई दीक्षा नहीं होती। यह बड़ी से बड़ी दीक्षा है। इसके मंत्र गोपनीय हैं, इसलिए फेसबुक जैसे सार्वजनिक मंचों पर इन्हें लिख नहीं सकते।
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दिवाली के दो नाम हैं। एक नाम "लक्ष्मी पूजन" है जो सतयुग से जुड़ा है, और दूसरा नाम "दीपावली" है जो त्रेतायुग से जुड़ा है। अब प्रश्न उठता है कि यह पूजा तो लक्ष्मी जी की है और बीच में गणेश जी क्यों आ गए? इस के आध्यात्मिक कारणों पर अभी नहीं लिखूंगा क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर अति गंभीर है जिसे आध्यात्मिक रूप से उन्नत साधक ही समझ सकेंगे। सामान्य रूप से यही लिखूंगा कि गणेश जी विघ्न-विनाशक हैं, जिनकी पूजा सर्वप्रथम और सब देवी-देवताओं से पहिले और उनके साथ-साथ होती है।
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पुनश्च: -- दीपावली की समस्त मंगलमय शुभ कामनाएँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
"श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥"
"श्रीमते रामचंद्राय नमः !! रां रामाय नमः॥"
"श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नमः !
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्॥"
कृपा शंकर
१२ नवंबर २०२३