गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई "योग साधना" की एक परम श्रेष्ठ विधि --
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६:२४॥"
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् --
"संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके॥"
"शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
"यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
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समस्त कामनाओं से मुक्त हो कर धैर्ययुक्त बुद्धि से धीरे धीरे मन को सर्वव्यापी आत्मा में स्थित कर के अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है। इस प्रकार योगाभ्यासके बलसे योगीका मन आत्मा में ही शान्त हो जाता है। उपनिषदों की सहायता से इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया जा सकता है। यह साधक की पात्रता पर निर्भर है कि वह कितना समझ सकता है। अतः किसी भी साधक को एक बार तो किन्हीं ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से व्यक्तिगत मार्गदर्शन लेना ही पड़ेगा।
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"मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं चल सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने यहाँ जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०२४
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