Thursday, 19 June 2025

सत्य सनातन धर्म ही इस सृष्टि का प्राण है। यही प्राण-तत्व है, जिसने इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है।

सत्य सनातन धर्म --ही इस सृष्टि का प्राण है . यही प्राण-तत्व है, जिसने इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है। प्राण-तत्व से ही ऊर्जा निर्मित हुई है, जिससे सृष्टि का निर्माण हुआ। प्राण-तत्व से ही सारे प्राणियों और देवी-देवताओं का अस्तित्व है। प्राण-तत्व को जानना ही परमधर्म है। प्रा सत्य सनातन धर्म --ही इस सृष्टि का प्राण है . प्राण-तत्व है, जिसने इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है। प्राण-तत्व से ही ऊर्जा ण-तत्व का ज्ञान श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी सद्गुरु की कृपा से उनके द्वारा बताई हुई साधना, उनके सान्निध्य में, सफलतापूर्वक करने से होता है।

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स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् ६/४॥
अर्थात् - परमात्मा ने सर्वप्रथम प्राण की रचना की। तत्पश्चात् श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।
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सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय २/१/६
अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
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कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक
अर्थात्- वह एक देव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि ने व्यक्त किया है।
‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य। अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्म है।
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प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक ५/३
अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
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भृगुतंत्र में कहा गया है -- "उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥" अर्थात् - प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है, वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। ॐ तत्सत् !!
२० जून २०२१

माता-पिता प्रथम देवता होते हैं। सर्वप्रथम प्रणाम उन्हीं को किया जाता है।

 माता-पिता प्रथम देवता होते हैं। सर्वप्रथम प्रणाम उन्हीं को किया जाता है। जिस मंत्र से गुरु को प्रणाम करते हैं, उसी मंत्र का मानसिक जप करते हुए पिता को प्रणाम किया जाता है। जिस मंत्र से भगवती भुवनेश्वरी को प्रणाम किया जाता है, उसी मंत्र का मानसिक जप करते हुए माता को प्रणाम किया जाता है। यदि वे नहीं हैं तो भी मानसिक रूप से सर्वप्रथम प्रणाम उन्हीं को करें।

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कई माँ-बाप अपने बच्चों को बहुत अधिक मारते-पीटते या प्रताड़ित करते हैं। कई माँ-बापों का आचरण बच्चों की दृष्टि में गलत होता है। ऐसे बच्चों में माँ-बाप के प्रति घृणा विकसित हो जाती है। वे अपने माँ-बाप को देखना भी पसंद नहीं करते। चाहे आप अपने माँ-बाप से घृणा करते हैं, या उनकी शक्ल देखना भी पसंद नहीं करते, फिर भी वे आपके प्रथम देवता हैं। प्रथम प्रणाम मानसिक रूप से उन्हीं को जाता है।
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नित्य सर्वप्रथम प्रणाम मानसिक रूप से जपते हुए "ॐ ऐं" मंत्र से अपने पिता को और फिर अपने गुरु को करें। फिर "ॐ ह्रीं" मंत्र से अपनी माता को और फिर भगवती को करें। माता-पिता चाहे कैसे भी हों, वे भगवान शिव और माँ अन्नपूर्णा के रूप हैं। आप उन्हें नहीं, उनके रूप में भगवान शिव और माँ अन्नपूर्णा को प्रणाम कर रहे हो। ये मंत्र चिन्मय और स्वयंसिद्ध हैं। शुद्ध मन से इनके जप में कोई दोष नहीं है। इससे पितृदोष दूर होते हैं, पित्तरों का और भगवान का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। माता-पिता यदि दूर हैं या दिवंगत हो गए हैं तो भी मानसिक रूप से उन्हें प्रणाम सर्वप्रथम करें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२० जून २०२२

मन को आत्मा में ही लगाएँ और अनात्म से मुक्त हों? ---

 मन को आत्मा में ही लगाएँ और अनात्म से मुक्त हों? ---

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जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक भगवान का नाम ही मन बुद्धि और चित्त में लगातार चलता रहे। जब हम भगवान का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करते हैं, तब मन को आत्म तत्व में लगाकर अन्य किसी भी विषय का चिंतन नहीं करना चाहिए। भगवान कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥६:२६॥"
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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इस से विगत के पापों से मुक्ति तो मिलती ही है, परमानंद की भी प्राप्ति होती है। भगवान आगे कहते हैं --
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६:२९॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६:३०॥"
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६:३१॥"
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है॥
जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है॥
योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है॥
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अब प्रश्न उठता है कि अनात्म से कैसे मुक्त हों ? गीता के निम्न पाँच श्लोकों में भगवान ने उपाय बताया है जिसके लिए भगवान की कृपा चाहिए ---
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
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भावार्थ -- विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर॥१८:५१॥
विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित॥१८:५२॥"
अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है॥१८:५३॥
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥१८:५४॥
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥१८:५५॥
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आप सभी में परमात्मा को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० जून २०२३

अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। और कुछ भी देखना बाकी नहीं है।

अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। और कुछ भी देखना बाकी नहीं है। जो सार की बात है उसे स्वीकार कर, असार को त्याग देना ही उचित है।

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बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वव्यापी परमात्मा स्वयं बिराजमान हैं। उनकी ओर दृष्टि स्थिर हो गई है। और कुछ भी देखने की इच्छा नहीं है। यह देह, यह अन्तःकरण, ये कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राएँ सब साथ छोड़ रही हैं। अब आत्मा का स्वधर्म ही मेरा स्वधर्म है। आत्मा का स्वधर्म है परमात्मा को समर्पण। भगवान की आज्ञा है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो। अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त करोगे।
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् -- तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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जब भगवान स्वयं इतनी बड़ी बात कह रहे हैं तो उनकी बात सुनें या संसार की? यहाँ इस संसार में अहंकार, लोभ और छल-कपट ही भरा पड़ा है। एकमात्र रक्षक स्वयं भगवान हैं। अब इस समय तो करुणा और प्रेमवश उन्होने मुझे अपने हृदय में स्थान दे रखा है। अगर यह छोड़ दिया तो और कोई ठिकाना भी नहीं है। जब अपना डेरा भगवान के हृदय में डाल ही दिया है, तो और कुछ देखने की इच्छा भी नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० जून २०२४

क्या चीन-भारत युद्ध की भूमिका बन रही है?

 (प्र.) क्या चीन-भारत युद्ध की भूमिका बन रही है?

(उ.) निश्चित रूप से "हाँ"। भारत और चीन के मध्य एक निर्णायक युद्ध अवश्यंभावी है। यह नहीं कह सकता कि कब होगा, लेकिन निश्चित रूप से होगा।
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चीन पर पर्याप्त अध्ययन और चीन की यात्राओं का पर्याप्त अनुभव भी मुझे है। तिब्बत कभी भी चीन का भाग नहीं था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने स्टालिन के कहने से ब्रिटेन की अनुमति लेकर तिब्बत -- चीन को सौंपा था।
यह लेख अपनी अंतर्प्रज्ञा से लिख रहा हूँ। चीन का युद्ध भारत, अमेरिका, जापान, फिलिपाइन, विएतनाम और ताइवान से होगा, जिसमें चीन हारेगा और सात टुकड़ों में विभाजित हो जायेगा।
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(१ व २) सबसे पहले चीन से तिब्बत और क्विङ्ग्हाई प्रांत अलग होंगे और मिलकर एक स्वतंत्र देश बना लेंगे। कैलाश और मानसरोवर को भारत अपने अधिकार में ले लेगा।
(३) तीसरा भाग जो चीन से पृथक होगा, वह सिंजियांग प्रांत है। यह पूर्वी तुर्की कहलाता था। कभी भी चीन का भाग नहीं था।
(४) चौथा भाग जो चीन से पृथक होगा वह मंचूरिया होगा, जिसे चीन ने तीन प्रान्तों में बाँट रखा है -- लियानोनिंग, जिलियान व हेलोंगजियांग।
(५) पाँचवाँ भाग इन्नर मंगोलिया, जो चीन की दीवार के उत्तर में है।
(पास में ही एक छोटा सा प्रांत और है जिसका नाम निंगसिया है, उसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।)
(६) गुयाङ्गदोंग प्रांत व हैनान द्वीप। होङ्ग्कोंग व मकाऊ इसी का भाग हो जाएँगे।
(७) ताइवान -- जो इस समय भी चीन से पृथक है।
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भारत की सीमा चीन से कहीं पर भी नहीं लगेगी। चीन द्वारा कब्जाए गए सारे भारतीय क्षेत्रों को भारत छुड़ा लेगा। इसकी प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है।
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चीन एक असुर देश है। उनका खानपान ही उन्हें असुर बनाता है।
२० जून २०२४

साकार रूप में स्वयं वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण मेरे समक्ष शांभवी-मुद्रा में ध्यानस्थ हैं ---

साकार रूप में स्वयं वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण मेरे समक्ष शांभवी-मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। उनके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। कभी कभी वे त्रिभंग-मुद्रा में बांसुरी बजाते हुए दिखाई देते हैं। इसे त्रिभंग मुद्रा इस लिए कहते हैं कि वे हमें अज्ञान की तीनों -- रुद्र-ग्रंथि, विष्णु-ग्रंथि, और ब्रह्म-ग्रंथि का भेदन करने को कह रहे हैं। बांसुरी बजाकर वे समस्त सृष्टि में प्राण फूँक रहे हैं, साथ-साथ नव-सृजन भी कर रहे हैं। वे स्वयं ही यह समस्त्त विश्व और उसके प्राण हैं। वे ही धनुर्धारी भगवान श्रीराम हैं, वे ही परमशिव हैं, और वे ही तंत्र की दसों महा-विद्याएँ हैं।

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श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न मंत्रों में भगवान का एक बहुत बड़ा संदेश छिपा है, जिसे आप समझने की कृपा करें। समझ लोगे तो धन्य हो जाओगे।
अर्जुन उवाच
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥११:२८॥"
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥११:२९॥"
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो॥११:३०॥"
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥११:३१॥"
श्री भगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥११:३२॥"
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
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भगवान के उपरोक्त संदेश को अबश्य समझें जिसमें वे हमें निमित्त मात्र होने को कह रहे हैं। गीता का कोई प्रसिद्ध भाष्य ले लें। उस भाष्य की सहायता से उपरोक्त मंत्रों का अर्थ समझें। आप कृतकृत्य हो जाओगे।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२२
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पुनश्च :--- इस लेख को लिखने का उद्देश्य ---
भगवान ने इस जीवन में जो कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ दी हैं वे अपनी तन्मात्राओं सहित शिथिल होती जा रही हैं। वे पूरी तरह धोखा दें, इससे पूर्व ही उन्हें भगवान को बापस दे रहा हूँ। भगवान उन्हें अवश्य स्वीकार करेंगे।

मेरा सौभाग्य है कि आजकल प्रातःकाल में उठते ही भगवान पकड़ लेते हैं ---

मेरा सौभाग्य है कि आजकल प्रातःकाल में उठते ही भगवान पकड़ लेते हैं। उनकी पकड़ बड़ी प्रेममय है जिस से बचना असंभव है। वे ही यह भाव उत्पन्न करते हैं कि -- "तुम यह विराट अनंतता और सम्पूर्ण सृष्टि हो, यह नश्वर भौतिक देह नहीं। तुम से पृथक कुछ भी नहीं है। तुम अजर अमर शाश्वत आत्मा हो।"

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इसके लिए ध्यान-साधना करने की प्रेरणा भी भगवान ही देते हैं। अनात्मा से निवृत्ति कैसे हो? यह मेरी सबसे बड़ी समस्या है। इसका उपाय गीता में भगवान बताते हैं –-
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"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
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अर्थात् -- विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर॥१८:५१॥
विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित॥१८:५२॥"
अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है॥१८:५३॥
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥१८:५४॥
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥१८:५५॥
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किसी चौथी कक्षा के बालक के समक्ष कोई कॉलेज का प्रोफेसर आकर भाषण देने लगे तो वह बालक क्या समझेगा? वैसी ही स्थिति मेरी है। लेकिन जब भगवान स्वयं समक्ष हैं तो मुझे समझाने और मेरे समझने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की है।
मैं तो एक शरणागत और निमित्त मात्र हूँ। यह बहुत कठिन कार्य है जो बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२३

संतान कैसी होगी? इसका पूरा दायित्व माता पर है ---

 संतान कैसी होगी? इसका पूरा दायित्व माता पर है

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(१) जिस समय पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते हैं, उस समय सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है, और माता के जैसे विचार और भाव होते हैं, वैसी ही जीवात्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है। पिता की भूमिका इतनी ही होती है कि वह अपनी पत्नी में उच्च विचार जागृत करे। माता चाहे तो आध्यात्मिक साधना द्वारा महानतम दैवीय आत्माओं का आवाहन कर के उन्हें पुत्र रूप में पा सकती है।
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(२) गर्भवती स्त्री द्वारा ग्रहण किए जानेवाले आहार का गर्भ पर पूरा प्रभाव पड़ता है। हमारे विचार भी हमारे आहार ही होते हैं। अतः गर्भवती महिला को अपने भोजन और विचारों की सात्विकता पर पूरा ध्यान देना चाहिए।
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ॐ तत्सत् !!
१९ जून २०२२

आत्माराम ---

 आत्माराम ---

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सरल से सरल भाषा में "आत्माराम" से ऊँची या बड़ी कोई अवस्था नहीं है। जो आत्माराम हो गया, उसके लिए संसार में करने योग्य अब कुछ भी नहीं है। उसने सब कुछ पा लिया है, और वह ऊँची से ऊँची अवस्था में है। उसने भगवान को भी पा लिया है। ऐसे आत्माराम -- पृथ्वी के देवता हैं। उन्हीं से यह भूमि पवित्र है। "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा मंत्र है --
"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।"
यहाँ देवर्षि नारद जी ने भक्त की तीन अवस्थाएँ बताई हैं। ईश्वर की अनुभूति पाकर भक्त पहिले तो "मत्त" हो जाता है, फिर "स्तब्ध" हो जाता है, और फिर "आत्माराम" हो जाता है, यानि अपनी आत्मा में रमण करने लगता है। आत्मा में रमण करते-करते वह स्वयं परमात्मा के साथ एक हो जाता है।
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"शाण्डिल्य सूत्र" के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। जो भी अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता।
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जहाँ तक मुझ अल्पज्ञ की सीमित सोच है -- आत्म-तत्व का साक्षात्कार ही आत्माराम होना है। खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में कूटस्थ पर ध्यान करने से प्राण-तत्व की चंचलता कम होती है, मन पर नियंत्रण होता है, और आत्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूतियाँ होती हैं। उस सर्वव्यापक आत्मा से एकाकार होना ही आत्म-तत्व में रमण, यानि आत्माराम होना है।
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मेरी अत्यल्प व सीमित बुद्धि के अनुसार -- क्रिया-प्राणायाम व ध्यान के पश्चात योनिमुद्रा में जिस ज्योति के दर्शन होते हैं, वह ज्योति - ईश्वर का रूप है। उस ज्योति के स्वभाविक रूप से निरंतर दर्शन, और उसके साथ-साथ सुनाई देने वाले प्रणव-नाद का निरंतर स्वभाविक रूप से श्रवण, व उन्हीं की संयुक्त चेतना में रहना "कूटस्थ चैतन्य" व "ब्राह्मी-स्थिति" है। यह भी "आत्माराम" होना है।
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देवर्षि नारद के गुरु थे भगवान सनतकुमार, जिन्हें ब्रह्मविद्या का प्रथम आचार्य माना जाता है; क्योंकि ब्रह्मविद्या का ज्ञान उन्होने सर्वप्रथम अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। भगवान सनतकुमार ने प्रमाद को मृत्यु और अप्रमाद को अमृत कहा है (महाभारत उद्योगपर्व, सनत्सुजातपर्व अध्याय ४२)। प्रमादी व्यक्ति कभी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें भक्ति का उदय नहीं होता। अतः भक्ति में प्रमाद (आलस्य और दीर्घसूत्रता) नहीं आना चाहिए।
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परमात्मा से प्रेम करो, और अधिक प्रेम करो, और, और भी अधिक प्रेम करो। इतना अधिक प्रेम करो कि स्वयं प्रेममय हो जाओ। यही परमात्मा की प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा का साक्षात्कार है, और यही आत्माराम होने की स्थिति है। अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दो और परमात्मा के साथ एक हो जाओ। प्रेममय होकर हम स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। परमात्मा में और हमारे में कहीं कोई भेद नहीं है। यही वह स्थिति है जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
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चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, पूरा आसमान नीचे गिर जाये, पूरी धरती महाप्रलय के जल में डूब जाये, और यह शरीर जल कर भस्म हो जाये, लेकिन परमात्मा को हम कभी नहीं भूलेंगे और निरंतर सदा उनसे प्रेम करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२१

भगवान की परम कृपा है कि क्रिकेट का खेल मैंने कभी भी नहीं खेला और न ही इसके बारे में कोई जानकारी है ---

भगवान की परम कृपा है कि क्रिकेट का खेल मैंने कभी भी नहीं खेला और न ही इसके बारे में कोई जानकारी है| मेरी इस खेल में कोई रूचि भी नहीं है और न मैं इसे देखना पसंद करता हूँ|

विद्यार्थी जीवन में भी खेल के मैदान की अपेक्षा मेरा अधिकाँश समय पुस्तकालयों में ही बीता| एक तरह का किताबी कीड़ा ही समझ लीजिये| एक अल्प समय के लिए मार्क्सवाद के अँधेरे कुएँ में गिर कर भी जीवित बाहर निकल आया| फिर आध्यात्म की दुनिया में आया तो वहीं का हो गया|
क्रिकेट अब कोई खेल नहीं, व्यवसाय बन गया है जिसमें सब पैसों के लिए खेलते हैं| इसके खिलाड़ियों के बाद ही भगवान का नंबर आता है, मतलब ये भगवान से भी बड़े हैं (God is next to them)| इस धंधे में दर्शक तो मात्र मोहरे ही हैं| परदे के पीछे सटोरियों और माफियाओं का ही बोलबाला है|
कोई मेरी इन पंक्तियों का बुरा नहीं माने| जो ह्रदय में था वह बाहर आ गया|
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ॐ ॐ ॐ || कृपा शंकर
१९ जून २०१७

हनुमान् जी के विवाह की चर्चा अप्रामाणिक --- (लेखक : आचार्य सियारामदास नैयायिक)

 ---हनुमान् जी के विवाह की चर्चा अप्रामाणिक--- (लेखक : आचार्य सियारामदास नैयायिक)

यह पराशर संहिता अर्वाचीन ग्रन्थ है । हमारे यहाँ हनुमान् जी के
विषय में सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ वेद और आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण है । जिससे हनुमान् जी के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है ।
अथर्वणशीर्ष जिसे अथर्ववेद का परिशिष्ट अंश सभी वैदिक विद्वान्
मानते हैं । उसके "सप्तमुखी हनुमत्कवच" में "ब्रह्मचर्याश्रमिणे" शब्द
से हनुमान् जी को ब्रह्मचर्याश्रम में स्थित बतलाया गया है । जो सपत्नीक होगा उसे ब्रह्मचर्याश्रम में कोई विज्ञ नहीं कह सकता है; क्योंकि यह आश्रम विवाह होने के पूर्व में ही माना गया है ।
विवाहोपरान्त व्यक्ति गृहस्थाश्रम में माना जाता है -यही शास्त्रीय सिद्धान्त है । अतः वेदविरुद्ध अंश में पराशरसंहिता का प्रामाण्य स्वीकार्य नहीं ।
१-यह संहिता परस्पर विरुद्ध बातें कहती है -इसलिए भी यह प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है ।
२-इस संहिता में अन्य ग्रन्थों के अधिक से अधिक भागों को लिया गया है । जैसे-
७४वें पटल में ३०वें श्लोक से ४८वें श्लोक तक कवच आनन्द रामायण के एकमुखी कवच की नक़ल हैं ।
८५वें पटल में सभी मन्त्र सुदर्शन संहिता के हैं -इस तथ्य को मुम्बई से प्रकाशित "हनुमदुपासना पुस्तक" से कोई भी जान सकता है ।
८८वें पटल में हनुमत्सहस्रनाम है वह भी रुद्रयामल तन्त्र का है ।
९३ पटल का सम्पूर्ण हनुमत्कवच आनन्दरामायण का है ।
पराशरसंहिताकार ने तो हनुमान् जी को ११९वें पटल में पिशाच बना दिया है । जबकि वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड के अनुसार हनुमान्
जी चिरंजीवी हैं । ७ चिरंजीवियों में "हनूमांश्च विभीशणः।" से हनुमान्
जी का ग्रहण है ।
क्या हनुमान् शरीर से रामकथा के प्रचार प्रसार तक रहते हनुमान् जी पिशाच बन सकते हैं ? -इससे कुत्सित कल्पना दूसरी और क्या हो सकती है ?
पराशरसंहिता में लिखा है कि हनुमान् जी सुवर्चला के स्तन पर हाथ रखे हुए हैं । ये कैसा ब्रह्मचर्य है ? पराशरसंहिताकार की दृष्टि से ।
सूर्य की पुत्री तपती की चर्चा पुराणों में है किन्तु सुवर्चला की चर्चा पराशरसंहिता से अन्यत्र क्यों नहीं ?
दक्षिण भारत में मामा की लड़की से शादी के लिए ५-६- साल तक प्रतीक्षा करनी पड़े तो दाक्षिणात्य प्रसन्न हो जाता है । कुमारिल भट्ट
जैसे महामीमांसक लिखते हैं कि मामा की लड़की से विवाह करके दाक्षिणात्य प्रसन्न हो जाता है-
" मातुलस्य सुतामूढ्वा दाक्षिणात्यः प्रहृष्यति ।" ।
दाक्षिणात्य तो भगवान् के मोहिनी अवतार से शिव जी द्वारा एक पुत्र की उत्पत्ति की कल्पना करके मन्दिर बना बैठे हैं जिसे "अयप्पा" कहते हैं । यह भी भागवत आदि पुराणों से विरुद्ध है ।
पराशर संहिता एक अर्वाचीन ग्रन्थ है । वाल्मीकि रामायण के अनुसार सूर्य भगवान् ने हनुमान् जी को समस्त विद्यायें प्रदान करने का वरदान दिया है । फिर ये ४ विद्यायें कौन हैं जो सभी विद्याओं की परिधि में नहीं आतीं ?
सूर्यपुत्री सुवर्चला काल्पनिक है । सूर्यपुत्री केवल तपती ही हैं । हनुमान् जी को "ब्रह्मचर्याश्रमिणे" से ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित कहा गया है । इससे विरुद्ध उनके विवाह की कल्पना और मन्दिर केवल अय्यप्पा या साईमन्दिर के समान है ।
दैनिक भास्कर जी आप या आपका बुद्धिजीवी कोई भी पत्रकार या आपसे सम्बन्धित कोई भी विद्वान् मेरे कोमेन्ट का उत्तर कर सकता है तो करे । आपकी पूरी पोस्ट प्रमाणविरुद्ध है ।
जय श्रीराम
आचार्य सियारामदास नैयायिक १९ जून २०१५