Sunday, 29 June 2025

इस जीवात्मा को परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?

 इस जीवात्मा को परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?

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यह एक मौलिक प्रश्न है जिसे कोई नहीं पूछता। मेरे और परमात्मा के मध्य में कौन सी कड़ी (Link) है? मुझे परमात्मा से किसने जोड़ रखा है?
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वह परमात्मा की ही एक शक्ति है जो मुझे लेकर परमात्मा से पृथक हुई, और मुझे लेकर बापस परमात्मा से एक दिन मिल जाएगी। उन्होने ही मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है।
प्राण-तत्व के रूप में जगन्माता ही हमें परमात्मा से जोड़ती है। वे ही हमारा प्राण हैं। जगन्माता के सारे सौम्य और उग्र रूप उन्हीं के हैं। उन्हीं का घनीभूत रूप कुंडलिनी महाशक्ति है। वे ही महाकाली हैं।
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हे भगवती, हे जगन्माता, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
कृपा शंकर
३० जून २०२२

भगवान क्या खाते हैं ?? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं ---

 भगवान क्या खाते हैं ?? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं --

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"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९:२६॥"
अर्थात् - जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा, शुद्धबुद्धि भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूँ, अर्थात् ग्रहण करता हूँ।
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भक्तों को अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है। भगवान बड़े भोले हैं, उन्हें हम प्रेम से जो भी अर्पण करते हैं, उसे ही वे खा लेते हैं। वास्तव में हम जो कुछ भी खाते हैं, वह सब भगवान ही खाते हैं, जिससे समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है। भगवान स्वयं वेश्वानर के रूप में उसे ग्रहण कर जठराग्नि द्वारा चार प्रकार के अन्नों (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) को पचाते हैं --
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् - "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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हम जहाँ भोजन करते हैं, वहाँ का स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिस आसन पर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध और पवित्र होना चाहिये। भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीर के आसपास के परमाणुओं को भी खींचते/ग्रहण करते हैं। हम भगवान को क्या खिलाते हैं, उसी के अनुसार मन बनेगा। भोजन बनाने वाले के भाव, विचार भी शुद्ध और सात्त्विक होने चाहियें।
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भोजन से पूर्व हाथ पैर मुख पवित्र जल से साफ कर के बैठिए। दायें हाथ में जल लेकर मानसिक रूप से गीता के इस मंत्र से आचमन करें ---
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
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आचमन के पश्चात पहले ग्रास के साथ मानसिक रूप से मंत्र "ॐ प्राणाय स्वाहा" अवश्य कहें। प्रत्येक ग्रास को चबाते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहना चाहिए। भोजन करते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहने से अन्नदोष दूर हो जाता है।
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यदि आप भगवती अन्नपूर्णा के भक्त है तो उपरोक्त सब विधियों के साथ साथ आरंभ में भगवती अन्नपूर्णा का मंत्र भी मानसिक रूप से पूर्ण भक्ति-भाव से अवश्य कहना चाहिए --
"अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३० जून २०२२
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टिप्पणी :--- "प्रयतात्मा" का अर्थ शब्दकोश के अनुसार - संयमी, जितेंद्रिय है।

साकार या निराकार ? .....

 साकार या निराकार ? .....

मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से साकार व निराकार में कोई अंतर नहीं है| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है वह सब साकार है, चाहे वह परमात्मा की सर्वव्यापकता हो, या कोई मन्त्र या कोई ज्योति हो या कोई भाव हो| पूरी सृष्टि ही साकार है|
जिसकी सृष्टि ही नहीं हुई है सिर्फ वह ही निराकार है|
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आजकल भगवान की साधना कम, और भगवान के नाम पर व्यापार अधिक हो रहा है| निराकार ब्रह्म की परिकल्पना एक परिकल्पना ही है| हम भगवान के जिस भी रूप की उपासना करते हैं, उपास्य के गुण उपासक में निश्चित रूप से आते हैं|
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योगसुत्रों में भी कहा गया है कि किसी वीतराग पुरुष का चिंतन करने से हमारा चित्त भी वैसा ही हो जाता है| हम भगवान राम का ध्यान करेंगे तो भगवान राम के कुछ गुण हम में निश्चित रूप से आयेंगे| भगवान श्री कृष्ण, भगवन शिव, हनुमान जी, जगन्माता आदि जिस भी किसी के रूप को हम ध्यायेंगे हम भी वैसे ही बन जायेंगे| अतः हमारी क्या अभीप्सा है और स्वाभाविक रूप से हम क्या चाहते हैं, वैसी ही हमारी साधना हो|
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भगवान की साधना सिर्फ भगवान के प्रेम के लिए ही करें| भगवान को अपना अहैतुकी परम प्रेम दें, उनके साथ व्यापार ना करें| भगवान के साथ हम व्यापार कर रहे हैं इसीलिए सारे विवाद उत्पन्न हो रहे हैं| कई हिन्दू आश्रमों में भगवान् श्री कृष्ण के साथ साथ ईसा मसीह की भी पूजा और आरती होती है| कुछ काली मंदिरों में माँ काली की प्रतिमा के साथ मदर टेरेसा के चित्र की भी पूजा होती है| यह एक व्यापार है|
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साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है| वास्तव में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| जो स्वयं को निराकार का साधक कहते हैं वे भी या तो भ्रूमध्य में प्रकाश का ध्यान करते हैं या किसी मंत्र का जप या ध्यान करते हैं| वह प्रकाश भी साकार है और मन्त्र भी साकार है| स्वयं को निराकार के साधक बताने वाले अपने गुरु के मूर्त रूप का ध्यान करते हैं, वह भी साकार है| किसी भाव का मन में आना ही उसे साकार बना देता है| अतः इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| देव भूत्वा देवम यजेत, शिव भूत्वा शिवम यजेत|
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मुझे कोई निराशा, हताशा व संशय आदि नहीं हैं| मेरा चिंतन एकदम स्पष्ट है|
किसी से कोई कामना या अपेक्षा भी नहीं है| भगवान की साधना ही साधना का फल है| वे स्वयं ही साधक, साधना और साध्य हैं| साधना में कोई माँग नहीं बल्कि समर्पण होता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
३० जून २०१७

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ---

 उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ---

आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है जिसका रहस्य प्रभु कृपा से ध्यान योग साधक जानते हैं| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है|
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उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है|
संत पलटूदास जी कहते हैं कि उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है| पर उस ज्योति के दर्शन और उस नाद का श्रवण सद्गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं करा सकता|
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उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ......
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
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पानी का कुआँ तो सीधा होता है पर यह उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का नित्य निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ..... ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ..... अनाहत नादब्रह्म है| यही राम नाम की ध्वनी है|
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'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सदगुरुओं के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है|
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बाहर हम जो दीपक जलाते हैं वे इसी कूटस्थ ज्योति के प्रतीक मात्र हैं| बाहर के घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उसी कूटस्थ अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं|
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ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं|
ब्रह्म के दो स्वरुप हैं| पहला है "शब्द ब्रह्म" और दूसरा है "ज्योतिर्मय ब्रह्म"| दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| आज्ञा चक्र में नियमित रूप से ध्यान लगाने से ही ज्योतिर्मय और शब्द ब्रह्म की अनुभूति होती है|
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प्रिय निजात्मगण, आप सब की भावनाओं को नमन और मेरे लेख पढने के लिए आप सब का अत्यंत आभार| आप सब सदा सुखी एवं सम्पन्न रहें| आप की कीर्ति सदा अमर रहे|
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ॐ तत्सत् | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
३० जून २०१६

भारत और विश्व में हिंदुओं की और सनातन धर्म की रक्षा कौन करेगा ?

 भारत और विश्व में हिंदुओं की और सनातन धर्म की रक्षा कौन करेगा ?

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हमारी सबसे बड़ी पीड़ा है भारत में निरंतर हो रही तमोगुण में वृद्धि, और धर्मांतरण (Religious conversion)। भारत से धर्म का ह्रास -- भारत का विनाश कर देगा। भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। विश्व में कहीं पर भी किसी हिन्दू का, धर्म के आधार पर यदि उत्पीड़न होता है तो उसकी रक्षा भारत सरकार को ही करनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। यह अति दुःखद है। यूरोप का हर देश और अमेरिका -- ईसाईयों की रक्षा करते हैं, और विश्व का हरेक मुसलमान देश -- मुसलमानों की रक्षा करता है।
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वर्तमान परिस्थितियों में हम असहाय हैं। और तो कुछ नहीं कर सकते लेकिन परमात्मा की साधना तो कर ही सकते हैं। परमात्मा से प्रार्थना करेंगे कि पूरे विश्व में सनातनी हिंदुओं की और धर्म की रक्षा हो।
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धर्म की जय हो॥ अधर्म का नाश हो॥
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम्। दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम्॥"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२५