Saturday, 21 June 2025

गहराई से "योग" का अर्थ, जिस पर हम प्रायः चर्चा नहीं करना चाहते ---

 गहराई से "योग" का अर्थ, जिस पर हम प्रायः चर्चा नहीं करना चाहते ---

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हमारे जीवन में अंधकार है तो इसका एकमात्र कारण हमारा तमोगुण है। जीवन में प्रकाश सतोगुण से है, और कर्मठता रजोगुण से है। जब हमें निमित्त बनाकर सब कुछ भगवान स्वयं कर रहे हैं, तो हमारे लिए उन को समर्पित होने से अतिरिक्त अन्य कुछ भी करने योग्य नहीं है। उनके त्रिगुणात्मक संसार से हमने दिल लगाकर देख लिया है, जिससे निराशा, छल-कपट और धोखा ही धोखा मिला।
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भगवान हमें सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण, इन तीनों गुणों से परे जाने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित, और आत्मवान् बनो॥
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भगवान हमें "निस्त्रेगुण्य" (त्रिगुणातीत) होने को कहते हैं, लेकिन यह भी बता रहे हैं कि उसके लिये पहले हमें "निर्द्वन्द्व" "नित्यसत्त्वस्थ" "निर्योगक्षेम" और "आत्मवान्' होना होगा।
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इनका अर्थ इस तरह किया है --
(१) निर्द्वंद्व -- सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित होना होगा।
(२) नित्यसत्त्वस्थ -- का अर्थ है कि सदा सत्त्वगुण के आश्रित हों।
(३) निर्योगक्षेम -- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याण मार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहने वाला हो।
(४) आत्मवान् -- अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
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भगवान आगे कहते हैं --
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात् -- हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥
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आचार्य शंकर ने इस मंत्र की बहुत सुंदर व्याख्या की है। उन्हीं के शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ --
यदि कर्मफल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहियें, तो फिर किस प्रकार करने चाहियें? इस पर भगवान यहाँ प्रकाश डालते हैं -- "ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों", -- इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़कर कर कर्म कर। हे धनंजय, योग में स्थित होकर केवल ईश्वर के लिय ही कर्म कर। फलतृष्णारहित पुरुष द्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर।
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वह कौन सा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करने के लिये कहा है ---
यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं। गीता में कर्म, भक्ति, और ज्ञान -- सिर्फ इन तीन विषयों पर ही भगवान ने उपदेश दिये हैं। इन तीनों विषयों में ही उन्होंने सारे सनातन धर्म को लपेट लिया है। कर्मयोग का सार है --"समत्व"। इस परिप्रेक्ष्य में समत्व ही योग है, और यह "समत्व" ही गीता का सार है। समत्व में स्थित होकर ही हम निष्त्रैगुण्य यानि त्रिगुणातीत हो सकते हैं। यही जीवन का सार है। भगवान श्रीकृष्ण को "वासुदेव" इसीलिए कहते हैं कि वे सर्वत्र समभाव में स्थित हैं।
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मुझे जैसा समझ में आया, वैसा ही मैंने यहाँ लिख दिया। भगवान की कृपा के अतिरिक्त मुझ में कोई अन्य क्षमता नहीं है। उनकी कृपा पर ही आश्रित हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२४

एक विचित्र सी बहुत गहन तड़प मेरे हृदय में लंबे समय से है ---

 एक विचित्र सी बहुत गहन तड़प मेरे हृदय में लंबे समय से है। उस तड़प में पीड़ा भी है और व्याकुलता भी। पहले तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उस का कारण समझने का पूर्ण प्रयास किया तो समझ में आया कि तमोगुण के प्रभाव से मैं कुछ भूल कर रहा हूँ, यह उस को सुधारने का प्रकृति द्वारा दिया हुआ एक संदेश है। पूरी बात समझ में आ गयी है। यह भूल अब और नहीं होगी।

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"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विशावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥
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"अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४:६॥"
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥४:७॥"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४:८॥"
"जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४:९॥"
"वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥४:१०॥"
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"वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥"
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विशावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
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ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२२ जून २०२४

अब जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया है ---

अब जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया है। मेरे पास समय और स्थान की कोई कमी नहीं है। जीवन अनंत है। कहीं भी जीवन का अंत नहीं है। समय ही समय है। परमात्मा का सारा समय मेरा ही समय है। इस पृथ्वी ग्रह से ही बंधा हुआ मैं नहीं हूँ। सारा ब्रह्मांड और सारी अनंतता मेरा ही विस्तार है। अब आने वाला सारा समय परमात्मा को समर्पित है।

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भगवान सच्चिदानंद हैं। उनके साथ खूब सत्संग करेंगे। जितनी इस शरीर की क्षमता है, उसके अनुसार यात्राएं भी करेंगे। अनेक प्रेमी तपस्वी साधु-संतों और सत्संगी मित्रों से भी मिलेंगे, व उनका सत्संग लाभ लेंगे।
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जीवन में आनंद ही आनंद है। कहीं कोई कमी नहीं है। शास्त्रों में जिस भूमा-तत्व की बात बताई गयी है, वह प्रत्यक्ष रूप से अब समक्ष है। परमात्मा से ही एकमात्र संबंध रह गया है। उन्हीं से अब सारा व्यवहार है, अन्य किसी से नहीं। जिस विमान से यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, उसके पायलट स्वयं भगवान वासुदेव हैं। यह विमान भी वे ही हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२३

भगवान का स्पष्ट आदेश ---

 भगवान का स्पष्ट आदेश ---

अब तक अपनी सब कमियों के लिए मैं अपने विगत कर्मों (कर्मफलों) को दोष देता था। करुणावश भगवान से रहा नहीं गया। आज उन्होने व्यक्तिगत रूप से गहन ध्यान में मुझे समझा ही दिया कि --
"चिंतन पुरुषार्थ का करो, न कि विगत कर्मों का। पुरुषार्थ करो, तप करो, जीवन में पवित्रता लाओ, एकाग्रता और ध्यान का अभ्यास करो। भूतकाल से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम वही हो जो वर्तमान में हो। भाग्यवादी मत बनो। जड़ता का त्याग करो। मानसिक रूप से वेदान्त-केसरी की तरह निर्भय रहो, और प्रणव का निरंतर जप करो।"
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भगवान ने कृपा कर के यह भी समझा दिया कि --
"लोभ" और "कामनाएँ" ही मेरे पतन का एकमात्र कारण थीं। भावी आध्यात्मिक प्रगति के लिये -- सब तरह के "लोभ" और कामनाओं" से मुझे मुक्त होना पड़ेगा।
अनेक गोपनीय रहस्य भी उन्होने अनावृत किये जो व्यक्तिगत हैं, किसी अन्य को बताये नहीं जा सकते।
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जब तक संतुष्टि न मिले, तब तक भगवान का खूब ध्यान करें। उन्हें अपनी स्मृति में हर समय रखें। जब भी समय मिले भगवान का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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प्रार्थना ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२५

भगवत्-प्राप्ति की पात्रता किसमें होती है? ---

 (प्रश्न ) : भगवत्-प्राप्ति की पात्रता किसमें होती है?

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(उत्तर ) : अपनी परमकृपा करके श्रीमद्भगवद्गीता के मोक्षसंन्यास-योग नामक १८वें अध्याय में उपरोक्त प्रश्न का उत्तर पाँच श्लोकों में अकारणकरुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण देते हैं --
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
अर्थात् --
विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर -- विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित -- अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है। --- ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है --- (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥
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सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने लिए जो "मैं" शब्द का प्रयोग करते हैं, वह अपने परमात्म स्वरूप की दृष्टि से ही कहते हैं; वसुदेव के पुत्र के रूप में नहीं। अत जब वे कहते हैं वह (साधक) मुझमें प्रवेश करता है, तब उसका अर्थ किसी गृह में प्रवेश के समान न होकर साधक की आत्मानुभूति से है। हरिः ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
२२ जून २०२५

वह परिवर्तन हम स्वयं हैं जो विश्व में होते हुए देखना चाहते हैं ---

 वह परिवर्तन हम स्वयं हैं जो विश्व में होते हुए देखना चाहते हैं ---

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नित्य नियमित परमात्मा का ध्यान करें, सिर्फ बातों से कुछ नहीं होगा। स्वयं में परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति को करना होगा। अन्धकार का सकारात्मक प्रतिकार निरंतर होना चाहिये। कोई भी योजना या संकल्प तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक हम स्वयं ध्यान साधना न करें। पूरे विश्व में उथल-पुथल हो जाये, या सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, हमारे ह्रदय में शान्ति बनी रहनी चाहिये। यह शांति ध्यान-साधना द्वारा ही संभव है। जीवन की सारी समस्याओं का समाधान ध्यान साधना द्वारा ही संभव है। ध्यान साधना में जागृत परमात्मा की शक्ति ही सृष्टि की धारा को बदलने में पूर्णतः सक्षम है।
ॐ तत्सत्। ॐ शिव। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२२ जून २०१७

Friday, 20 June 2025

अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस की शुभ कामनाएँ :---

 अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस की शुभ कामनाएँ :---

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बिना ब्रह्मचर्य के कोई योगी नहीं हो सकता। योग है -- कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर परमशिव से मिलन। बिना ब्रह्मचर्य का पालन किए कोई कुंडलिनी जागरण का प्रयास करेगा, तो उसका मष्तिष्क निश्चित रूप से विक्षिप्त होगा, और वह स्थायी मनोरोगी हो जाएगा।
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खेचरी-मुद्रा को सिद्ध किए बिना योग में सिद्धि नहीं मिलती। इसके लिए योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने तालव्य क्रिया का अभ्यास बताया था। इसमें जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर एक झटके के साथ बाहर की ओर फेंक देते हैं। बार-बार यह अभ्यास किशोरावस्था से ही सिखाना चाहिए। साथ साथ जीभ के अगले भाग को सूती कपड़े से पकड़ कर दिन में तीन-चार बार धीरे धीरे बिना किसी कष्ट के खींच कर लंबी करने का अभ्यास करना चाहिए। खेचरी का यह तो है भौतिक पक्ष। दूसरा है मानसिक पक्ष जो एक जन्म में सिद्ध नहीं होता। यह है आकाश में विचरण। एक सिद्ध योगी इस भौतिक शरीर की चेतना से बाहर निकल कर आकाश में ही ध्यानस्थ होता है, और आकाश में विचरण कर के इस देह में बापस आ जाता है। यह खेचरी की सिद्धि है। जो खेचरी नहीं कर सकते वे अर्ध-खेचरी का अभ्यास करें। साधना के समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटाकर रखें।
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क्रिया-योग के अभ्यास से कुंडलिनी का जागरण होता है। लेकिन इसका अभ्यास गुरु के मार्गदर्शन में ही होना चाहिए। योग में सिद्धि के लिए एक स्वस्थ शरीर, योग-क्रियाओं का ज्ञान, मन में लगन, भक्ति और अभीप्सा चाहिए। हठ योग का ज्ञान और अभ्यास -- अन्य योगों की साधना के लिए आवश्यक है। हठयोग के तीन ही प्रामाणिक ग्रंथ हैं --
(१) घेरण्ड संहिता, (२) हठयोग प्रदीपिका, और (३) शिव-संहिता।
इन्हीं का विस्तार अन्य हजारों पुस्तकें हैं। पातंजलि के 'योगदर्शन' का स्वाध्याय बाद में या साथ-साथ करें।
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वैसे योग साधना का आरंभ यजुर्वेद के कृष्ण-यजुर्वेद भाग से हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद का स्वाध्याय उन सब को करना चाहिए जो योगी बनना चाहते हैं। अन्य भी ज्ञात-अज्ञात अनेक उपनिषद हैं। मेरे लिए तो श्रीमद्भगवद्गीता - योग का सर्वोच्च ग्रंथ है।
पुनश्च आप सब को मंगलमय शुभ कामना। भगवान की परम कृपा सभी पर हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२३