योग साधना की एक सर्वश्रेष्ठ विधि ---
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भगवान हम से हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) विशेषकर मन मांगते हैं (यानि मनोनिग्रह का आदेश देते हैं) और कुछ नहीं। भगवान कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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यह बहुत अधिक गहरी बात है। यही उपासना है और यही साधना है। स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इसे --"एष योगस्य परमो विधिः" अर्थात् "योग की परम श्रेष्ठ विधि" बताया है। वे कहते हैं -- शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से, धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा, उपरति (शांति) को प्राप्त कर, मन को आत्मा में स्थित कर के, यानि यह सब कुछ आत्मा ही है, उस से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है।
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कर्ताभाव को त्याग कर, एक निमित्त मात्र बन कर, भगवान को समर्पित होना पड़ेगा, क्योंकि -- "मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है, जिसे एक ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध आचार्य ही एक नए साधक को समझा सकता है।
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प्रातः साढ़े तीन या चार बजे उठिए। थोड़ा उष:पान कर शौचादि से निवृत होकर मुंह को धोइये और बाहर खुले में दस-पंद्रह बार लंबी लंबी सांसें लेकर कुछ देर तक हठयोग के कुछ आसन, प्राणायाम, बंध और महामुद्रा आदि कीजिये। फिर अपने ध्यान कक्ष में कमर को सीधी रखते हुये पूर्वाभिमुख होकर एक ऊनी आसन पर बैठ जाइये। बिना हत्थे की कुर्सी पर भी बैठ सकते हैं, लेकिन नीचे एक आसन अवश्य लगा लें। अब अर्धोन्मीलित आँखों से अपना पूरा दृष्टि-पथ और ध्यान भ्रूमध्य में ले लाइये।
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भ्रूमध्य में भगवान के सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप का ध्यान कीजिये, जिनकी ज्योति से सारी सृष्टि, सारा ब्रह्मांड प्रकाशित है। वह सर्वव्यापी ज्योति और उससे आलोकित सम्पूर्ण ब्रह्मांड आप स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं है। भ्रूमध्य में दृष्टिगोचर हो रहे सूर्य-मण्डल के मध्य में सर्वव्यापी पुरुषोत्तम या परमशिव का ध्यान कीजिये। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर स्वयं को भूल जाएँ। वे सर्वस्व सर्वव्यापी जो हैं, सो ही अनन्य रूप से केवल आप हैं। उनमें और आप में कोई भेद नहीं है। आप यह नश्वर शरीर नहीं, अपने सर्वव्यापी उपास्य/आराध्य पुरुषोत्तम/परमशिव के साथ एक हैं।
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कुछ देर तक वहीं बैठे रहिये। फिर समष्टि के कल्याण की प्रार्थना करें।
ध्यान साधना से पूर्व हठयोग के कुछ आसन, प्राणायाम, बंध, और महामुद्रा आदि का अभ्यास साधना में बहुत अधिक सहायक है।
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आजकल के कुछ प्रसिद्ध योगाचार्यों से मुझे एक ही शिकायत है। वे जो कुछ भी सिखाते हैं, वह सब "घेरण्ड-संहिता", "हठयोग-प्रदीपिका" और "शिव-संहिता" जैसे ग्रन्थों से ली हुई बातें हैं, लेकिन नाम लेते हैं पतंजलि के योग-दर्शन का। यह उनका एक झूठ और पाखंड है।
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आप सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२१
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