मेरा साथ देने के लिए आप सभी को साभार धन्यवाद !!
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मेरी अब एकमात्र अभीप्सा है -- अपने परमप्रिय प्रत्यगात्मा परमशिव में रमण करने की। इधर-उधर कहीं भी देखने की कोई इच्छा नहीं रही है। "तन समर्पित, मन समर्पित, तुझको अपनापन समर्पित॥" एक स्वभाविक परम अभीप्सा जागृत थी, जो अब प्रचंड रूप से और भी अधिक प्रबल हो गई है। परमात्मा की प्रेरणा से यहाँ इसी समय श्रीमद्भगवद्गीता के तीन श्लोक उद्धृत कर रहा हूँ।
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे। मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
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(प्रश्न) : परमात्मा से हमें क्या चाहिये?
(उत्तर) : वे हमारा समर्पण पूर्णतः स्वीकार करें। और कुछ भी नहीं चाहिए।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जून २०२३
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