Friday, 6 June 2025

क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?

 

क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?
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जिन्ना का जिन्न तो अब बोतल में बंद है, कभी बाहर नहीं निकल सकता। भारत की रक्षा सदा से क्षत्रियों ने की है, उन्होंने ही समाज और राष्ट्र के हित में सबसे अधिक त्याग और बलिदान दिये हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?
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तुर्क (मुगल) आक्रांताओं की सेना में सारे मुस्लिम ही नहीं होते थे। आधे से अधिक तो भाड़े के हिन्दू सिपाही होते थे। ऐसे ही अंग्रेजों की सेना में लगभग सारे सिपाही भारत के ही भाड़े के हिन्दू और मुस्लिम सिपाही थे। उनकी निष्ठा (वफादारी) भारतीय समाज व राष्ट्र के प्रति न होकर, भाड़ा (तनखा या वेतन) देने वाले के प्रति ही होती थी। चाहे समाज और राष्ट्र नष्ट हो जाये, पर नमकहरामी नहीं होनी चाहिए। लगता है यही उनकी सोच थी। उस समय राष्ट्र और समाज की चेतना नहीं थी, यही विदेशी सत्ताओं की सफलताओं, और हमारी विफलताओं का कारण था। फिर भी भारत कभी भी पराधीन नहीं हुआ। विदेशियों का शासन भारतीय राजाओं के साथ संधि करके ही स्थापित हुआ। भारत सदा स्वाधीन था, और सदा स्वाधीन रहेगा।
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तुर्क और अंग्रेज़ दोनों ही लुटेरे थे। वे भारत को लूटने आये और सत्तासीन हो गए। तत्कालीन साहित्य और राजनीतिक स्थिति यही कहती है कि -- भूमिचोर ही भूप बन गए। सबसे दुःखद बात तो यह है कि तुर्कों और अंग्रेजों के पक्ष में भाड़े के हिन्दू ही लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा लागू की। हिन्दू जमींदार ही अपने हिन्दू किसानों का खून चूस कर अंग्रेजों की तिजोरी भर रहे थे। भारत के तुर्क (मुगल) और अंग्रेज आक्रांताओं की फौज भाड़े के भारतीयों की ही फौज थी।
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अभी भी गद्दारों की कमी भारत में नहीं है। लेकिन समाज और राष्ट्र की चेतना वाले नागरिक बहुमत में हैं, इसीलिए हम सुरक्षित हैं। जिस दिन सेकुलर कौमनष्ट और जिहादी लोग सत्ता में आ गए, उस दिन से फिर भारत को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करना होगा। अब राष्ट्रभक्ति का महत्व, नमक की कीमत से अधिक है।
७ जून २०२३

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