(प्रश्न) : परमात्मा को निश्चित रूप से हम कैसे उपलब्ध हों?
Tuesday, 16 December 2025
परमात्मा को निश्चित रूप से हम कैसे उपलब्ध हों?
हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो, आप और मैं एक हैं ---
हे प्रभु, स्वयं को मुझ में व्यक्त करो, आप और मैं एक हैं ---
आध्यात्मिक साधना वही करें जो हमें वीतराग बनाये ---
आध्यात्मिक साधना वही करें जो हमें वीतराग बनाये ---
"कूटस्थ" शब्द का अर्थ? ---
"कूटस्थ" शब्द का अर्थ? ---
सबसे बड़ा तंत्र, और सबसे बड़ा मन्त्र ---
सबसे बड़ा तंत्र, और सबसे बड़ा मन्त्र ---
परमात्मा की उच्चतम अनुभूति हमें "परमशिव" या "पुरुषोत्तम" के रूप में होती है। लेकिन कूटस्थ ब्रह्म के रूप में तो वे हर समय हमारे समक्ष हैं ---
आध्यात्मिक दृष्टि से मैं तृप्त और संतुष्ट हूँ ---
आध्यात्मिक दृष्टि से मैं तृप्त और संतुष्ट हूँ। यहाँ से मन भर गया है। अब केवल परमात्मा के महासागर में गहरी डुबकी लगाकर स्वयं को विलीन करने का काम बाकी है। यह महासागर ऊर्ध्व में है, जिसका रंग धवल यानि श्वेत है। इसकी स्थिति चिदाकाश यानि चित्त रूपी आकाश से भी परे है। वहाँ का गुरुत्वाकर्षण भी उल्टा है। वह ऊपर की ओर ही खींचता है, नीचे की ओर नहीं। हमारी कामनाएँ और आकाक्षाएँ हमें अधोगामी बना देती हैं। अन्यथा हमारी स्वाभाविक गति ऊर्ध्व में है। वही क्षीरसागर है, जहां भगवान नारायण का निवास है। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है, कोई अंधकार नहीं।
आज गीता जयंती है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ।
आज गीता जयंती है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ।
निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः॥
निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः॥
ईश्वर की कृपा से सरल से सरल भाषा में मैं भगवान की भक्ति, आध्यात्मिक साधना और ब्रह्मविद्या पर अनेक लघु लेख लिख पाया
ईश्वर की कृपा से सरल से सरल भाषा में मैं भगवान की भक्ति, आध्यात्मिक साधना और ब्रह्मविद्या पर अनेक लघु लेख लिख पाया। ब्रह्मविद्या को ही को उपनिषदों में "भूमा" कहा गया है, जिसे दर्शन शास्त्रों में "वेदान्त" भी कहते हैं। जो मैं नहीं लिख पाया वह मेरी सीमित बुद्धि की समझ से परे था।
निरंतर ब्रह्म-चिंतन द्वारा वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ही हम इस समष्टि की सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं ---
ॐ तत् सत् ----- निरंतर ब्रह्म-चिंतन द्वारा वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ही हम इस समष्टि की सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं। किशोरावस्था से ही यह सत्य पढ़ता आ रहा हूँ, लेकिन अब इस समय अपनी निज-अनुभूतियों से यह बात पक्काई से कह सकता हूँ। आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization) ही सबसे बड़ी सेवा है, जो हमारे माध्यम से सम्पन्न हो सकती है।
परमात्मा से उनके परमप्रेम/अनुराग के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए ---
पुनश्च: ---
भगवत्-प्राप्ति, यानि आत्म-साक्षात्कार -- मनुष्य के लिए सबसे अधिक सरल और सहज है। चाहे तो कोई भी मनुष्य ब्रह्मज्ञ हो सकता है, लेकिन हमारा लोभ और अहंकार ऐसे नहीं होने देता। हमारे शास्त्र तो कहते हैं कि भगवान की माया का आवरण और विक्षेप हमें भगवान से दूर करता है, लेकिन हमारा लोभ और अहंकार ही माया का मुख्य आवरण है।