(प्रश्न) : परमात्मा को निश्चित रूप से हम कैसे उपलब्ध हों?
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(उत्तर) : ये पंक्तियाँ लिखने की प्रेरणा मुझे जगन्माता से मिल रही है जो प्राण रूप में समस्त सृष्टि को धारण किये हुए हैं। परमात्मा की दृष्टि में हम वही हैं जो स्वयं की दृष्टि में हैं। हमें पता है कि हम कहाँ खड़े हैं। हम दुनियाँ को धोखा दे सकते हैं, लेकिन स्वयं को नहीं। छल-कपट, लोभ और अहंकार ने हमें परमात्मा से पृथक कर रखा है। इन रिपुओं से तो मुक्त हमें होना ही पड़ेगा। जब तक हम स्वयं को छल-कपट और लोभ-अहंकार से मुक्त नहीं कर लेते तब तक परमात्मा को भूल जाइये।
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व्यावहारिक रूप से हमारी दो साँसों के मध्य में यानि दो साँसों के मध्य में परमात्मा हैं। हम सांस छोड़ते हैं और लेते हैं, हम सांस लेते और छोड़ते हैं, उनके मध्य में कुछ पलों के लिए रुकते हैं। वह दो साँसों के मध्य का संधिकाल कुंभक कहलाता है। यह कुंभक यानि संधिकाल परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो। इस कुंभक का क्रमशः सतत् विस्तार हो और इस समय श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में बताई हुई विधि से मूर्धा में प्रणव का मानसिक जप हो। मेरुदण्ड उन्नत रहे, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में, जिह्वा को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटा कर रखें।
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फिर सांस कौन ले रहा है? हमारी हर सांस स्वयं परमात्मा ले रहे हैं। यदि आप ले रहे हो तो सांसें रोक कर दिखाइये। हर सांस के साथ अजपा-जप करें। यह एक वैदिक साधना है जिसे वेदों में हंसवतीऋक कहा गया है। इसे हंसःयोग भी कहते हैं। यह गोपनीय नहीं है। जगत्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को, या दक्षिणामूर्ति रूप में भगवान शिव को गुरु मानकर, इसका अभ्यास कर सकते हैं।
गोपनीय तो एक दूसरी विद्या है जिसका संकेत भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के २९वें श्लोक में किया है --
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥४:२९॥"
इसका रहस्य बताने का अधिकार केवल एक अधिकृत सद्गुरु को ही है, जो पात्रता देखकर शिष्य को अपने सामने बैठाकर इसका ज्ञान प्रदान करता है।
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"ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अब केवल ब्रह्मकर्म की बात करेंगे। भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना है तो भगवान ने इसे व्यभिचार की संज्ञा दी है। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में दो बार, दो अलग-अलग स्थानों पर, दो सगे भाइयों -- युधिष्ठिर व अर्जुन को "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश दिया है। जिस के जीवन में यह "अव्यभिचारिणी भक्ति" और "अनन्य योग" फलीभूत हो जाते हैं, उसे इसी जीवन में भगवत्-प्राप्ति हो सकती है।
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महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश दिया है, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था। उसका १६६वां श्लोक है --
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते।
निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी॥"
(यहाँ "निर्विघ्ना" और "निश्चला" शब्दों का भी प्रयोग हुआ है)
महाभारत के भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनन्ययोग के लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है।सत्यनिष्ठा पूर्वक भगवान के सिवा अन्य कुछ भी प्रिय न लगे, वह अव्यभिचारिणी भक्ति है। ऐसे नहीं कि जब सिनेमा अच्छा लगे तब सिनेमा देख लिया, नाच-गाना अच्छा लगे तब नाच-गाना कर लिया, गप-शप अच्छी लगे तब गप-शप कर ली; और भगवान अच्छे लगे तब भगवान की भक्ति कर ली। ऐसी भक्ति व्यभिचारिणी होती है। "सिर्फ भगवान ही अच्छे लगें, भगवान के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा न लगे, निरंतर भगवान का ही स्मरण रहे वह "अव्यभिचारिणी भक्ति" है।"
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इस विषय पर और नहीं लिखूंगा अन्यथा लेख बहुत अधिक लंबा हो जाएगा। इसका समापन यहीं कर रहा हूँ। हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है। हम परमात्मा का बोध इसी जन्म में कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवंबर २०२५
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