"कूटस्थ" शब्द का अर्थ? ---
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यह शब्द "कूटस्थ", भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त शब्द है जिसे उनकी परमकृपा से ही समझा जा सकता है। "कूटस्थ" -- कालव्यापी अविनाशी परम तत्व को कहते हैं, जो सर्वत्र है लेकिन कहीं भी नहीं है। परमात्मा का यह सारा मायाजाल ही कूटस्थ है। एक सूक्ष्मतम जीवाणु से लेकर ब्रह्माजी तक का नाश हो सकता है लेकिन कूटस्थ का कभी नाश नहीं हो सकता। अमरकोष के अनुसार -- "कालव्यापी स कूटस्थ:" अर्थात जो काल को व्याप्त किए हुए है, वह त्रिकालकर्ता -- भूत, भविष्य, और वर्तमान का नियंत्रक "कूटस्थ" है। समष्टि में व्याप्त चैतन्य सत्ता ही "कूटस्थ" है। सरलतम स्पष्ट शब्दों में अक्षरब्रह्म ही कूटस्थ है।
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मुझे आदेश हुआ था कि मैं कूटस्थ में परमात्मा का ध्यान करूँ। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। फिर मुझे आदेश हुआ कि मैं भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करूँ। लेकिन परमात्मा शब्द के अर्थ को समझना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे था। जैसा भी जो भी समझ में आया उसके अनुसार भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करना आरंभ किया। एक दिन ध्यान करते करते विद्युत की आभा के समान एक ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट हुई। वह ज्योति समस्त ब्रह्मांड में फैल गयी। उस ज्योति की आभा सर्वत्र थी, सब कुछ यानि सारा अस्तित्व उस ज्योति में था। उससे परे कुछ भी नहीं था। अपना दर्शन देकर वह ज्योति लुप्त हो गयी।
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तत्पश्चात मुझे आदेश हुआ कि उस ज्योति का ही ध्यान करूँ। कुछ दिखता नहीं था, लेकिन उस आदेश की पालना में भ्रूमध्य में उसी सर्वव्यापी ज्योति का ध्यान आरंभ किया। धीरे धीरे कई दिनों या कई महीनों में जाकर उस सर्वव्यापी ज्योति का दर्शन होने लगा। उसमें से एक ध्वनि भी निःसृत होने लगी जो प्रणव की ध्वनि थी। उस सर्वव्यापी ज्योति का दर्शन और उस ध्वनि का निरंतर श्रवण ही मेरी साधना हो गयी। उसे ही मैं "कूटस्थ" में परमात्मा का ध्यान कहता हूँ। वास्तव में वह ज्योतिर्मय कूटस्थ ही परमात्मा है। उसका केंद्र भी समय के साथ बदल गया। पहले वह भ्रूमध्य से सहस्त्रारचक्र में आया, फिर सहस्त्रारचक्र से भी ऊपर परमात्मा की अनंतता में और अब तो उस अनंतता से भी परे स्थित हो गया है। उसे ही मैं "परमशिव" और "पुरुषोत्तम" कहता हूँ।
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इस विषय पर इस से अधिक कुछ भी लिखने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। जितना लिखने का मुझे आदेश और अनुमति थी, व जितना लिखने की मेरी सामर्थ्य थी वह लिख दिया है। इससे अधिक लिखने की क्षमता इस समय मुझमें नहीं है। भविष्य में कभी अनुमति व आदेश हुआ तो इस विषय पर और भी लिखूंगा।
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आप सब में भगवान श्रीकृष्ण को नमन जिनकी परम कृपा से ही मैं इतना समझ पाया हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता में जहाँ जहाँ भी "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग हुआ है, अपने पूर्ण विवेक के प्रकाश में उन संदर्भों का स्वाध्याय कीजिये। गीता के दूयारे अध्याय के अंत में एक शब्द -- "ब्राह्मी-स्थिति" का प्रयोग हुआ है उसे ही मैं कूटस्थ-चैतन्य कहता हूँ। यह ब्राह्मी-स्थिति ही कैवल्यपद है।
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जब तक संतुष्टि न मिले, तब तक भगवान का खूब ध्यान करें। उन्हें अपनी स्मृति में हर समय रखें। जब भी समय मिले भगवान का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। भगवान कहते हैं --
""यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२५
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