व्यवसायात्मिका बुद्धि के अभाव में आध्यात्मिक विफलता तो मिलती ही है, व्यक्तिव में विखंडन भी हो सकता है। पुष्पिता-वाणी से बच कर रहें ---
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"एकाग्र चित्त के साथ-साथ दृढ़ निश्चयात्मक बुद्धि को ही व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते है।" -- कल मैंने "व्यवसायात्मिका बुद्धि" विषय पर चर्चा छेड़ी थी। इसे अभी और आगे बढ़ाना है, क्योंकि इस शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में एक उद्देश्य विशेष के लिए किया है। वह उद्देश्य अभी पूरा नहीं हुआ है जिस पर प्रकाश डाले बिना मैं आगे नहीं बढ़ सकता।
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बिना "व्यवसायात्मिका बुद्धि" के कोई भी साधक अपनी साधना में सफल नहीं हो सकता, चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसारिक। उपासना में सफलता के इस विषय पर भगवान ने और क्या क्या कहा है, उस पर प्रकाश डालते हैं। यह विषय बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
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दृढ़ निश्चय और एकाग्र चित्त से अभ्यास करने से ही आत्मसाक्षात्कार संभव है, अन्यथा व्यक्तित्व का विखंडन भी हो सकता है, जिसका परिणाम भयानक विनाश है। सामान्यत लोग असंख्य इच्छायें रखते हैं जो अनेक बार परस्पर विरोधी भी होती हैं। उन्हें पूर्ण करने में ही मन की सारी शक्ति व्यय होकर थक जाती है। थका हुआ मन ईश्वर का चिंतन नहीं कर सकता।
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भगवान ने "पुष्पिता-वाणी" (पुष्पितां वाचं) से बचने को कहा है। पुष्पिता वाणी शास्त्रीय है लेकिन एक छल है। भगवान कहते हैं --
"यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२:४२॥"
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२:४३॥"
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२:४४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ, अविवेकी पुरुष वेदवाद में रमते हुये जो यह पुष्पिता (दिखावटी शोभा की) वाणी बोलते हैं। इससे (स्वर्ग से) बढ़कर और कुछ नहीं है॥
कामनाओं से युक्त स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले लोग भोग और ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाली अनेक क्रियाओं को बताते हैं जो (वास्तव में) जन्मरूप कर्मफल को देने वाली होती हैं॥
उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नही होते।
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जो भी भोगों का प्रलोभन और आश्वासन देती हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने उन सब साधनाओं को "पुष्पिता वाणी" कहा है। ये सब भोगों को प्रदान करती हैं लेकिन इनसे परमात्मा नहीं प्राप्त होते। ये पुनर्जन्म का हेतु बनती हैं।
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जो साधक भोग और ऐश्वर्य को ही पुरुषार्थ मान लेते हैं, उन की सांख्य और योग में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं हो सकती। यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन है, मेरा नहीं।
अतः साधक सावधान ! भोग और ऐश्वर्य को अपना साध्य मत बना लेना। केवल परमात्मा के ही चरण-कमलों में समर्पण की अभीप्सा बनी रहे। इधर-उधर कहीं भी मत देखो। सामने परमात्मा हैं। दृष्टि-पथ उधर ही बना रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२४
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पुनश्च: --- मैं भाग्यशाली हूँ कि भगवान ने मुझे याद किया। उनके श्रीचरणों में जब से सिर झुका है, झुका ही हुआ है। कभी उठा भी नहीं है और उठेगा भी नहीं।
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