कूटस्थ में अनुभूत हो रहे ज्योतिर्मय ब्रह्म ही साक्षात् परमात्मा हैं। उन्हीं की हमें अभीप्सा है। प्रणव की ध्वनि भी उन्हीं से निःसृत हो रही है। श्रौता भी वे हैं, और दृष्टा भी। एकमात्र कर्ता भी वे ही हैं। परमात्मा की प्रत्यक्ष उपस्थिती के आभास के पश्चात किसी भी उपदेश की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान भक्ति और वैराग्य सब कुछ वे ही हैं। दिन-रात निरंतर उन्हीं का ध्यान करें, और उन्हीं की चेतना में रहें।
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उपरोक्त स्थिति में कूटस्थ कहाँ है? श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम-योग में इसका उत्तर है, जो प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा ही जानने योग्य है। कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर मेरुदण्ड के सभी चक्रों में विचरण करते करते सहस्त्रारचक्र को भी भेदकर अनंतताकाश से भी परे उस बिन्दु पर पहुँच जाती है जिसके बारे में गीता के पंद्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में वर्णन है। इसके पश्चात चेतना नीचे नहीं आनी चाहिए। वहीं रहें और परमात्मा को कर्ता, और स्वयं को निमित्त बनाकर, परमात्मा को स्वयं का ध्यान करने दें।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५"४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
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अन्य कुछ भी इस समय लिखने योग्य नहीं है। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें। परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी अन्य इस समय चिंतनीय नहीं है।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१२ नवंबर २०२५
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