आध्यात्म की उच्चतम अनुभूति :---
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इस विषय पर मुझे लिखना तो नहीं चाहिये, लेकिन फिर भी लिख रहा हूँ, जिसका परिणाम जो भी हो, मुझे स्वीकार्य है। अनेक वर्षों से आध्यात्मिक क्षेत्र में हूँ। अब तक के जीवन की एकमात्र उपलब्धि यही है कि अब कोई कामना शेष नहीं रही है। सब आकांक्षाएँ व अभिलाषाएँ -- परमात्मा में विलीन हो गयी हैं। केवल एक अति अति गहन स्थायी अभीप्सा और तड़प है पूरी तरह समर्पित होने की, जो हर समय बनी रहती है।
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जहां तक आध्यात्मिक साधना की बात है, यह बताने में मुझे कोई झिझक नहीं है कि श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में बताई हुई "पुरुषोत्तम योग" की साधना ही योगमार्ग की "उच्चतम साधना" है, जिससे ऊंची कोई अन्य साधना नहीं है। यह भगवान पुरुषोत्तम की परम कृपा से ही समझ में आ सकती है। यह बुद्धि का नहीं अनुभूतियों का विषय है। एक बार कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम की अनुभूति हो जाये फिर साधक को इधर-उधर कहीं भी देखने या भटकने की आवश्यकता नहीं है। दिन-रात सोते-जागते हर समय चेतना उन्हीं में बनी रहे। इससे अधिक लिखने की मुझे और अनुमति नहीं है।
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मुझे किसी अन्य से कोई परामर्श या कोई सत्संग भी नहीं चाहिये, क्योंकि परमात्मा से निरंतर सत्संग में ही आनंद है। उनसे अन्य कोई है भी नहीं । पूर्व जन्म के व इस जन्म के कुछ संस्कार बचे हैं इसीलिए इन शरीर महाराज का साथ है। वे संस्कार नहीं रहेंगे तो ये शरीर महाराज भी साथ छोड़ देंगे। आप सब में मैं स्वयं को नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ जून २०२५
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