जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही "मुनि" हैं ---
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सारे नाम और सारे आकार परमात्मा के हैं। मानसिक रूप से जप करते हुए हम निःशब्द मौन हो जाते हैं। इस मौन को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में मानस-तप बतलाया है --
"मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७:१६॥"
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ -- शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है -- हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर स्वयं को ही ढूँढ़ना होगा। जो मैंने पाया है, आवश्यक नहीं है कि वह आप के भी अनुकूल हो। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है। लेकिन अनुसंधान तो स्वयं को ही करना होगा।
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एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला, और एक मंत्र होता है कामना को नष्ट करने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब तक कोई कामना, आकांक्षा व इच्छा होती है, तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा की अभीप्सा होती है, न कि आकांक्षा।
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जहाँ सभी आकांक्षाओं का स्रोत ही सूख जाये, जहाँ से व्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है, वहीं से परमात्मा की उपासना का आरंभ होता है। जैसे अंधकार और प्रकाश साथ साथ नहीं रह सकते, वैसे ही योग और भोग भी साथ-साथ नहीं हो सकते। कुछ पाने की कामना का ही नाश करना होगा। परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए पृथकता के बोध का समर्पण ही होता है, न कि कुछ प्राप्ति। प्राप्त करने को तो कुछ भी नहीं है, सब कुछ हम स्वयं हैं। इस विषय का गंभीरता से चिंतन कीजिये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४
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पुनश्च: ---- भक्ति निष्काम और अनन्य होनी चाहिए। निष्काम और अनन्य भक्ति को ही भगवान श्रीकृष्ण ने "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहा है। आरंभ में तो यह भाव हो कि सब कुछ परमात्मा हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। धीरे धीरे आप परमात्मा के साथ एक हो जायें, और यह भाव करें कि मैं ही सर्वस्व परमात्मा हूँ, और मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। भगवान से अन्य किसी भी आकांक्षा को भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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