हमें (मुझे या किसी को भी) परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, इसका एकमात्र कारण परमप्रेम (भक्ति), और सत्यनिष्ठा (sincerity & integrity) का अभाव है। अन्य कोई कारण नहीं है।
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द्वैत-भाव की समाप्ति -- "समर्पण" है, और आत्म-तत्व में स्थिति -- ध्यान, उपासना, व उपवास है। भगवान सत्य-नारायण हैं। सत्यनिष्ठा से समर्पित हुआ जाये तो परमात्मा की उपासना और परमात्मा की प्राप्ति अति सरल है। सत्यनिष्ठा के अभाव से ही हम परमात्मा से दूर हैं। 'उपासना' का अर्थ है -- अपने इष्टदेव के समीप उपस्थिति या आसीन होना (आसन)।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
अर्थात् - "जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर के अचिन्त्य, सर्वत्र परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में रत और सर्वत्र समबुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।"
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यहाँ भगवान श्री कृष्ण ने "उपासते" यानि उपासना शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य शंकर के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं" (गीता १२:३ पर शंकर भाष्य)।
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एक बर्तन से दूसरे बर्तन में जब तेल डालते हैं तब तेल की धार टूटती नहीं है। वैसे ही अपने प्रेमास्पद परमात्मा का ध्यान निरंतर तेलधारा के समान अखंड होना चाहिए, यानि बीच-बीच में खंडित न हो। साथ-साथ यदि भक्ति यानि परमप्रेम भी हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, और आगे के सारे द्वार भी स्वतः ही खुल जाते हैं। यही उपासना है।
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आपके समक्ष मिठाई रखी है तो मिठाई को चखिए, खाइये और उसका आनंद लें। उसके बखान में कोई आनंद नहीं है। भगवान सामने बैठे हैं, उनमें स्वयं को समर्पित कर दीजिये। बातों में कोई सार नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ मई २०२४
हमारा एकमात्र लक्ष्य है -
ReplyDelete"आत्म-साक्षात्कार" यानि परमात्मा की प्राप्ति। हमें पाप-पुण्य, व धर्म-अधर्म से ऊपर उठना होगा।
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