Friday, 25 April 2025

हम सब को भगवान से बहुत प्यार है। हम सब भगवान को जानना चाहते हैं, लेकिन जान नहीं पाते, इसका क्या कारण है? भगवान को जानना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे क्यों हैं?

इस प्रश्न का उत्तर गीता में भगवान ने अनेक बार अनेक स्थानों पर दिया है। भगवान की परम कृपा से मेरे जैसा अल्पज्ञ भी अंधों में काणा राजा बनकर ज्ञान की बातें लिखता रहता है। भगवान ने अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी है। मुझे भी भगवान ने अपनी करुणावश, मेरी बुद्धि में स्पष्टता और सच्चिदानंद की अनुभूतियाँ अनेक बार मुझे प्रदान की हैं। किसी भी तरह का कोई संशय मुझ में भगवान ने नहीं छोड़ा है। जब मेरे जैसा अल्पज्ञ भी संतुष्ट है तो आप तो बहुत बड़े बड़े ज्ञानी लोग हैं।

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गीता के सातवें अध्याय "ज्ञान-विज्ञान योग" में भगवान हमें परा और अपरा प्रकृतियों के बारे में बताते हैं। हमारी बुद्धि अपरा-प्रकृति का भाग है। भगवान हमें अपरा-प्रकृति से ऊपर उठकर परा-प्रकृति में स्थित होने को कहते हैं। इन दोनों प्रकृतियों से भी परे की एक परावस्था है, जिसमें हम ज्ञान का भी अतिक्रमण कर, ज्ञानातीत हो जाते हैं। वहाँ हम, हम नहीं होते, केवल आत्मरूप परमात्मा ही होते हैं। उस अवस्था को "कैवल्य" अवस्था कहते हैं। अपरा व परा प्रकृतियों को हम भगवान की कृपा से ही समझ सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥७:४॥"
"अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।७:५॥"
"एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७:६॥"
"मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९:१०॥"
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अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं -- पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) तथा मन, बुद्धि और अहंकार। परा प्रकृति -- हमारा जीव रूप है।
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भगवान की अनन्य-भक्ति और अपने आत्म-स्वरूप के निरंतर ध्यान से कैवल्य-अवस्था की प्राप्ति होती है। कैवल्य अवस्था -- में कोई अन्य नहीं, आत्म-रूप में केवल परमात्मा होते हैं। यह अवस्था शुद्ध बोधस्वरुप है, जहाँ केवल स्वयं है, स्वयं के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है -- एकोहम् द्वितीयो नास्ति। जीवात्मा का शुद्ध निज स्वरूप में स्थित हो जाना कैवल्य है।
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"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥"
(श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः मंत्र ११)
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हम परमात्मा को जान नहीं सकते, लेकिन समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं; वैसे ही जैसे जल की एक बूँद, महासागर को जान नहीं सकती, लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक हो जाती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर हो जाती है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में है, और मैं सम्पूर्ण सृष्टि में हूँ। मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! यही कैवल्यावस्था है।
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आप सब को सप्रेम सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

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