अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता मनुष्य की समस्त पीडाओं का एकमात्र कारण है|
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सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण|
प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे| जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं| संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति|
सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण|
प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे| जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं| संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति|
तब आपका अस्तित्व ही दूसरों के लिए वरदान बन जाता है| तब आप इस धरा को पवित्र करते हैं, पृथ्वी पर चलते फिरते भगवान बन जाते
हैं, आपके पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी सनाथ
हो जाती है|
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परमात्मा के प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है श्रीराधाजी में और श्रीहनुमानजी में अतः ये दोनों हमारे परम आदर्श हैं|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं।
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मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं। इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं। भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है।
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वास्तव में संसार को हमारे से जो अपेक्षा है, वही संसार हमारे से चाहता है। हमें अपनी शक्ति को पहचान कर संसार से किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की इच्छा को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार से कार्य करने से ही जीवात्मा रूपी हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकतें हैं। सामर्थ्य से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने से हम पुन: कर्म बंधन में बंध जाते हैं। हमें कर्म बंधन से मुक्त होने के लिये ही कर्म करना होता है, कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होने पर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम-लक्ष्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक भगवान में मन नहीं लग पायेगा।
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इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंप देनी चाहिये। हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये। यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है।
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साधना, शरणागति और कृपा के साक्षात् स्वरूप हैं महावीर हनुमान। ... ... ... श्री हनुमान जी जब लंका दहन के पश्चात लौटकर आए तो प्रभु श्री राम ने उनसे कहा, ‘‘लंका में तो तुमने बड़े महान कार्य किए।’’ इस पर हनुमान जी प्रभु के चरणों को पकड़ कर बोले, ‘‘लंका तो आपने मुझे बहुत बड़ी शिक्षा लेने के लिए भेजा था।’’ ‘‘देने के लिए या लेने के लिए?’’ प्रभु राम ने पूछा ... हनुमान जी ने कहा, ‘‘महाराज, मैं क्या शिक्षा देता? मैं तो लंका से शिक्षा लेकर आया हूं। प्रभो! जब मैंने इतने बड़े समुद्र को पार कर लिया, तो सोचा कि सीता जी को भी ढूंढ लूंगा, पर ढूंढ नहीं सका। तो इसके द्वारा आपने स्पष्ट बता दिया कि भक्ति तो कृपा के द्वारा ही पाई जाती है और उसके द्वारा पा लिया तो स्पष्ट ही है कि मेरे पुरुषार्थ का कोई अर्थ नहीं। प्रभो! इतना ही नहीं, दूसरा पाठ तब मिला, जब अशोक वाटिका में रावण के आने पर सीता जी व्याकुल हो गईं और शरीर त्याग करने तक के लिए व्याकुल हो गईं। उनकी व्याकुलता को देखकर त्रिजटा नाम की राक्षसी बोली कि आज रात मैंने सपने में देखा कि एक वानर लंका में आया हुआ है। प्रभो यह सुनकर मैं लज्जा के मारे गड़ गया। मैं सोचता था कि भला लंका में संत कहां हैं? पर वहां तो मुझे ऐसे-ऐसे संत मिले, जैसे संसार में अन्यत्र नहीं मिले। उसने स्वप्न में भी सत्य देख लिया और उस राक्षसी ने जब कहा कि वह आया हुआ वानर लंका को जलाएगा, तब तो मैं चकित रह गया परन्तु बाद में जब वह बात सत्य सिद्ध हुई, तब मैंने कहा कि त्रिजटा इतनी महान भक्त है कि जो बात आप ने मुझसे नहीं कही, वह त्रिजटा से कह दी। मुझसे तो आप ने बिल्कुल नहीं कहा था कि लंका को जलाना है, पर आपने त्रिजटा से संदेश भिजवाया। त्रिजटा ने कहा : सपनें बानर लंका जारी,जातुधान सेना सब मारी। तो प्रभु, मेरा यह भ्रम दूर हो गया कि किसी देश विशेष में संत होते हैं, किसी जाति में ही संत होते हैं। हमें लगने लगा कि आप सर्वव्यापी हैं तो आपके संत भी सर्वत्र हैं। कितना बड़ा चमत्कार, त्रिजटा कोई साधारण नहीं थी। भगवान राम के चरणों में उसकी महानतम रति है :
त्रिजटा राम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका।।
‘‘वह रति ऐसी है, जिसकी याचना करते हुए भरत जी कहते हैं-मुझे न धन की इच्छा है, न धर्म की, न काम की और न मोक्ष की। मैं तो बस यही वरदान मांगता हूं कि जन्म-जन्म में मेरा श्रीराम के चरणों में प्रेम बना रहे।
अरथ न धरम न काम रुचि,
गति न चहउं निरबान।
जनम-जनम रति राम पद,
यह बरदान न आन।।
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और राधा जी ने तो सारी सीमाएँ ही पार कर दीं ... ... ... भक्त अज्ञानी नहीं होता, वह भगवान के प्रभाव, गुण, रहस्य को तत्व से जानने वाला होता है। प्रेम के लिए ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है। किसी न किसी अंश में जाने बिना उससे प्रेम नहीं हो सकता और प्रेम होने पर ही उसका गुह्तम यथार्थ रहस्य जाना जाता है। भक्त भगवान के गुह्तम रहस्य को जानता है, इसलिए भगवान के प्रति उसका प्रेम उतरोतर बढ़ता ही रहता है। भगवान रससार है। उपनिषद भगवान को ‘रसो वै स:’ कहते है। इस प्रेम में भी द्वैत नहीं भासता! प्रेम की प्रबलता से ही राधा जी कृष्ण बन जाती है और श्री कृष्ण राधा जी। कबीर साहब कहते है –
जब में था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नायँ।
प्रेम-गली अति साँकरी, यामे दो न समायँ ।।
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वस्तुत: ज्ञानी और भक्त की स्थिति में कोई अन्तर नहीं होता भेद इतना ही है, ज्ञानी ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ कहता है और भक्त ‘वासुदेव: सर्वमिति’ अथवा गोसाइजी की भाषा में वह कहता है –
सिय राममय सब जग जानी।
वाल्मीकि रामायण में भी भगवान श्रीराम से ऐसी ही बात कही है –
जो एक बार भी मेरी शरण होकर यह कह देता है की ‘मै तेरा हुँ, मै उसको सम्पुर्ण भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’ भला ऐसी हालत में भगवान का सच्चा भक्त निर्भय क्यों न होगा?
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वाल्मीकि रामायण में भी भगवान श्रीराम से ऐसी ही बात कही है –
जो एक बार भी मेरी शरण होकर यह कह देता है की ‘मै तेरा हुँ, मै उसको सम्पुर्ण भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’ भला ऐसी हालत में भगवान का सच्चा भक्त निर्भय क्यों न होगा?
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बार बार बर माँगऊ हरषि देइ श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग।
अनपायनी शब्द का अर्थ है- शरणागति!
महान तपस्वी, योगी, देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं, हे मेरे श्रीरंग! अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे यह भीख दे दीजिए।
भगवान बोले, क्या दे दूं? तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों की सदा अनुपायन करता रहूँ। अर्थात आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे। ऐसी ही शरणागति की महिमा है देवता भी इससे अछूते नहीं हैं। फिर मानव जो नरकगामी है, वह इस संसार में, मृत्यु लोक में शरणागति के बिना एक पल भी कैसे जी सकते हैं, यदि हमें सोचना चाहिए, समझना चाहिए।
शरणागत ऐसा शब्द है कि जब आदमी थक जाए तो शरणागति स्वीकार कर ले। उपनिषदों में भगवान को शरणागत वत्सल लिखा गया है। शरणागति वत्सल का स्वभाव है कि वे शरण में आए हुए से उतना ही प्यार करते हैं, उतना ही पालन- पोषण करते हैं, जितना माँ- बाप अपनी संतान से करते हैं।
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न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
‘जिनके पास न विद्या है, न धन है, न कोई सहारा है; जिनमें न कोई गुण है, न वेद-शास्त्रों का ज्ञान है; जिनको संसार के लोगों ने पापी समझकर त्याग दिया है, ऐसे प्राणी भी जिन शरणागतपालक प्रभुकी शरण लेकर संत बन जाते और मुक्त हो जाते हैं, उन विश्वविख्यात गुणोंवाले अमलात्मा यदुनाथ श्रीकृष्णभगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ ।
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