Saturday, 21 June 2025

भगवान का स्पष्ट आदेश ---

 भगवान का स्पष्ट आदेश ---

अब तक अपनी सब कमियों के लिए मैं अपने विगत कर्मों (कर्मफलों) को दोष देता था। करुणावश भगवान से रहा नहीं गया। आज उन्होने व्यक्तिगत रूप से गहन ध्यान में मुझे समझा ही दिया कि --
"चिंतन पुरुषार्थ का करो, न कि विगत कर्मों का। पुरुषार्थ करो, तप करो, जीवन में पवित्रता लाओ, एकाग्रता और ध्यान का अभ्यास करो। भूतकाल से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम वही हो जो वर्तमान में हो। भाग्यवादी मत बनो। जड़ता का त्याग करो। मानसिक रूप से वेदान्त-केसरी की तरह निर्भय रहो, और प्रणव का निरंतर जप करो।"
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भगवान ने कृपा कर के यह भी समझा दिया कि --
"लोभ" और "कामनाएँ" ही मेरे पतन का एकमात्र कारण थीं। भावी आध्यात्मिक प्रगति के लिये -- सब तरह के "लोभ" और कामनाओं" से मुझे मुक्त होना पड़ेगा।
अनेक गोपनीय रहस्य भी उन्होने अनावृत किये जो व्यक्तिगत हैं, किसी अन्य को बताये नहीं जा सकते।
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जब तक संतुष्टि न मिले, तब तक भगवान का खूब ध्यान करें। उन्हें अपनी स्मृति में हर समय रखें। जब भी समय मिले भगवान का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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प्रार्थना ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२५

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