सत्य की खोज ही परमात्मा की खोज है।
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मेरा प्रयास यही रहता है कि मैं कोई विवादास्पद बात न लिखूँ, लेकिन आज लिख रहा हूँ। प्रत्येक मत/संप्रदाय और धार्मिक विचारधारा के अनुयायी अपने गुरु को ईश्वर का अवतार बताने लगते है। उनकी गुरु-परंपरा में यह मानना ठीक भी हो सकता है, लेकिन इस बात को आप किसी अन्य पर नहीं थोप सकते। अभी आजकल ऐसा ही प्रयास हो रहा है, जिसका मैं विरोध करता हूँ।
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किसी भी सदगुरु के आध्यात्मिक विचार तभी तक स्वीकार्य हैं जब तक वे श्रुतियों, स्मृतियों आदि के अनुकूल हैं। जो भी वेद-विरुद्ध है वह मुझे उसी क्षण अस्वीकार्य है। वेद ही अंतिम प्रमाण हैं।
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अङ्ग्रेज़ी शासनकाल में भारत से अनेक सामाजिक, राजनीतिक, व दार्शनिक विद्वान और धर्मगुरु अमेरिका व ब्रिटेन गये थे। वे वहाँ लंबे समय तक रहे और वहाँ की विचारधारा और जीवन शैली से बहुत अधिक प्रभावित हुये। वहाँ रहते-रहते उनके विचारों पर पश्चिमी संस्कृति हावी हो गई थी। उन्होने अनेक ऐसी बातें लिखीं हैं, जो मुझे अस्वीकार्य हैं।
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धर्म एक ही है जो सनातन है। अन्य सब मज़हब और रिलीजन हैं। हर बात को सत्य के तराजू पर तौल कर देखो। एक तो मैं जीसस क्राइस्ट को भगवान श्रीकृष्ण के समकक्ष नहीं मान सकता। जीसस क्राइस्ट हमारे गुरु कभी भी नहीं हो सकते। बाइबिल कभी भी गीता का स्थान नहीं ले सकती। मदर टेरेसा कभी भगवती महाकाली नहीं हो सकतीं। मोहनदास गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग कभी भी हम भारतीयों के आदर्श नहीं हो सकते। भारत की उपासना पद्धति और शास्त्रानुकूल आचरण के साथ कभी कोई समझौता नहीं हो सकता। स्वयं के गुरु को सच्चा गुरु बताना और दूसरों के गुरु को झूठा गुरु कहना भी गलत है।
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ऐसे सभी लोग जो विदेशी शासनकाल में विदेशों में रहे, उनके विचारों को स्वीकार करने से पूर्व विवेक पूर्वक उनकी बातों की समीक्षा कीजिये। उनकी बातें सत्य-सनातन-धर्म के अनुकूल हैं, तभी स्वीकार करें, अन्यथा उन की उपेक्षा कर दें। उस कालखंड के बड़े से बड़े महापुरुष के कथन को भी समीक्षापूर्वक ही स्वीकार करें। अन्यथा भ्रम उत्पन्न होगा। धर्म एक ही है जो सनातन है। अन्य सब मज़हब और रिलीजन हैं। हर बात को सत्य के तराजू पर तौल कर देखो।
"साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप स्वभाव।
सार सार को गहि लिए थोथा देही उड़ाय॥"
परमात्मा सत्य हैं, वे सत्यनारायण हैं। सत्य की खोज ही परमात्मा की खोज है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ मई २०२४
मोहनदास गांधी में ऐसा कोई भी गुण नहीं था जिससे उन्हें महात्मा कहा जा सके। अंग्रेजों के प्रचार तंत्र ने उन्हें महात्मा कह कर प्रचारित करवाया। वास्तव में वे अंग्रेजों के वेतनभोगी कर्मचारी थे, जिन्होंने भारत के क्रांतिकारियों के प्रभाव को कम किया। उनके लिए अंग्रेजों का हित सर्वोपरि था।
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