Thursday, 24 April 2025

हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य परमात्मा को उपलब्ध होना है। परमात्मा ही परम सत्य है। परमात्मा में हम सब एक हैं। परमात्मा ही हमारे अस्तित्व हैं।

 

मेरा आपसे मतभेद हो सकता है। मतभेद होना स्वभाविक है। लेकिन मेरे लिए हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य परमात्मा को उपलब्ध होना है। परमात्मा ही परम सत्य है। परमात्मा में हम सब एक हैं। परमात्मा ही हमारे अस्तित्व हैं। यह बात जीवन में मुझे बहुत देरी से समझ में आई क्योंकि मेरे पुण्य कर्मों का उदय ही देरी से हुआ। मैंने जीवन में जो विपरीतताऐं देखीं उनका कारण विगत जन्मों में पुण्य कर्मों का अभाव था। किसी अन्य का कोई दोष नहीं था।
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किसी भी साधना में सफलता के लिए हमारे में इन सब का होना परम आवश्यक है ---
(१) भक्ति, (२) अभीप्सा, (३) दुष्वृत्तियों का त्याग (४) शरणागति व समर्पण (५) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान, (६) दृढ़ मनोबल और स्वस्थ शरीर। हमें अपने स्वभाव के अनुकूल कोई भी आध्यात्मिक साधना करनी हो, वह किन्हीं सिद्ध-ब्रह्मनिष्ठ-श्रौत्रीय सद्गुरु से उपदेश और आदेश लेकर ही करनी चाहिए, क्योंकि यह श्रुति भगवती का आदेश है।
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हमारी वर्तमान स्थिति को देखकर ही कोई सद्गुरु हमें बता सकता है कि कौन सी साधना हमारे लिए सर्वोपयुक्त है। हर कदम पर अनेक बार हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। मन्त्र-साधना में तो मार्गदर्शक सद्गुरु का होना पूर्णतः अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से आती है, जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है।
वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु, बीजमंत्र, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी-मुद्रा में ज्योति दर्शन, खेचरी मुद्रा, महा-मुद्रा, नाद व ज्योति-तन्मयता, और साधन-क्रम आदि का ज्ञान -- गुरु की कृपा से ही हो सकता है।
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साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है। किसी भी साधना का लाभ उसका अभ्यास करने से है, उसके बारे में जानने मात्र से या उसकी विवेचना करने से कोई लाभ नहीं है। हमारे सामने मिठाई पडी है, उसका आनंद उस को चखने और खाने में है, न कि उसकी विवेचना से। भगवान का लाभ उनकी भक्ति यानि उनसे प्रेम करने से है न कि उनके बारे में की गयी बौद्धिक चर्चा से। प्रभु के प्रति प्रेम हो, समर्पण का भाव हो, और हमारे भावों में शुद्धता हो तो कोई हानि होने कि सम्भावना नहीं है। जब पात्रता हो जाती है तब गुरु का पदार्पण भी जीवन में हो ही जाता है|
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व्यक्तिगत रूप से आपका मेरे से मतभेद हो सकता है, क्योंकि मेरी मान्यता है कि -- कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है। गुरुकृपा से इस विषय का पर्याप्त अनुभव है। क्रियायोग का अभ्यास वेद-पाठ है, और क्रिया की परावस्था ही कूटस्थ-चैतन्य और ब्राह्मी-स्थिति है। प्रणव-नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, और आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है। अनंताकाश से भी परे के सूर्यमंडल में व्याप्त निज आत्मा से बड़ा कोई देव नहीं है, स्थिर तन्मयता से नादानुसंधान, अजपा-जप, और ध्यान से प्राप्त होने वाली तृप्ति और आनंद ही परम सुख है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
कृपा शंकर
२५ अप्रेल २०२३

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