भारत के अमृतकाल का आरंभ हो चुका है ---
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आज भगवान से प्रार्थना की है कि भारत एक सत्यधर्मनिष्ठ राष्ट्र के रूप में अपने द्विगुणित परम वैभव को प्राप्त हो। जब तक मैं इस शरीर में जीवित हूँ, और जब तक सांसें चल रही हैं, मेरी हर सांस परमात्मा को समर्पित है।
जब समय आयेगा तब सचेतन रूप से इस देह को त्याग कर, धर्ममय-अमृत का पान करता हुआ, कूटस्थ सूर्य की रश्मियों के सहारे भगवान पुरुषोत्तम के उस लोक में चला जाऊंगा जिस के बारे में वे स्वयं गीता में कहते हैं --
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
(अर्थात् - उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥)
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श्रुति भगवती भी जिस के बारे में कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥"
(मुण्डक २/२/११) व (कठ २/२/१५)
(अर्थात् - वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है, चन्द्र और तारे भी नहीं, विद्युत् भी नहीं चमकती, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी।
जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।)
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भगवान से प्रार्थना है कि मेरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) सदा शुद्ध रहे। किसी भी तरह के वासनात्मक विचारों का जन्म ही न हो। निरंतर भगवान की चेतना में मेरा अस्तित्व बना रहे। जो क्षर से अतीत, और अक्षर से भी उत्तम हैं, उन भगवान पुरुषोत्तम की मैं शरणागत हूँ। वे मेरा कल्याण करें। वे ही मुझे कृतकृत्य और कृतार्थ कर सकते हैं। उनकी शरणागति के सिवाय मुझे अन्य कुछ भी पता नहीं है। वे मेरा सम्पूर्ण समर्पण स्वीकार करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जून २०२४
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