अपने स्वधर्म पर अडिग रहें, धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है ---
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हमारा स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा (अतृप्त आध्यात्मिक प्यास और तड़प), परमात्मा से परमप्रेम (भक्ति), और परमात्मा को पाने का पुरुषार्थ (आत्म-साक्षात्कार)। उनका निरंतर स्मरण करते रहें। हम अपनी रक्षा करने में समर्थ होंगे। हमारी रक्षा होगी।
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भगवान कहते हैं --
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् - सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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भगवान हमारे हृदय में आ जाएँ और हम भगवान के हृदय में स्थित हो जाएँ, इस से बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है।
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
अर्थात् - जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है॥
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भगवान को समर्पित हो कर, उन का स्मरण करते हुये सारे कार्य करें।
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
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गीता में भगवान के उपदेशों का यह चरम श्लोक है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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हरिः प्रेरणा से यह सब लिखा गया। भगवान सदा हमारे हृदय में, और हम सदा उनके हृदय में रहें। हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
११ जून २०२२
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