मेरा सौभाग्य है कि आजकल प्रातःकाल में उठते ही भगवान पकड़ लेते हैं। उनकी पकड़ बड़ी प्रेममय है जिस से बचना असंभव है। वे ही यह भाव उत्पन्न करते हैं कि -- "तुम यह विराट अनंतता और सम्पूर्ण सृष्टि हो, यह नश्वर भौतिक देह नहीं। तुम से पृथक कुछ भी नहीं है। तुम अजर अमर शाश्वत आत्मा हो।"
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इसके लिए ध्यान-साधना करने की प्रेरणा भी भगवान ही देते हैं। अनात्मा से निवृत्ति कैसे हो? यह मेरी सबसे बड़ी समस्या है। इसका उपाय गीता में भगवान बताते हैं –-
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शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
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अर्थात् -- विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर॥१८:५१॥
विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित॥१८:५२॥"
अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है॥१८:५३॥
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है॥१८:५४॥
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥१८:५५॥
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किसी चौथी कक्षा के बालक के समक्ष कोई कॉलेज का प्रोफेसर आकर भाषण देने लगे तो वह बालक क्या समझेगा? वैसी ही स्थिति मेरी है। लेकिन जब भगवान स्वयं समक्ष हैं तो मुझे समझाने और मेरे समझने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की है।
मैं तो एक शरणागत और निमित्त मात्र हूँ। यह बहुत कठिन कार्य है जो बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुआ है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२३
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