कोई अन्य नहीं आयेगा, सब कुछ हमें स्वयं को ही करना होगा ---
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अन्य कोई नहीं आयेगा, सब कुछ हमें स्वयं को ही करना होगा। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में करना तो स्वयं को ही होगा। ईश्वर कोई ऊपर से उतर कर आने वाली वस्तु नहीं है, हमें स्वयं को ही ईश्वर बनना होगा। यही ईश्वर की प्राप्ति है। धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण भी स्वयं को ही करना होगा। भारत को हिन्दू राष्ट्र भी स्वयं को ही बनाना होगा।
लेकिन सारा कार्य एक निमित्त होकर करें, कर्ताभाव का अभिमान न आने पाये।
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परमात्मा के मार्ग में हमारे दो सबसे बड़े शत्रु हैं -- (१) प्रमाद (आलस्य), और (२) दीर्घसूत्रता (काम को आगे टालने की प्रवृति)।
प्रमाद, ही महिषासुर है। राग-द्वेष, अहंकार, संशय, और लोभ आदि के कारण ही हम भगवान से दूर हैं। अन्य कोई कारण नहीं है। समय हो गया है, उठो और ध्यान के आसन पर बैठकर गुरु-चरणों का ध्यान करो। अभी और इसी समय।
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जिस भौतिक विश्व में हम रहते हैं, उससे भी बहुत अधिक बड़ा एक सूक्ष्म जगत हमारे चारों ओर है, जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह की सत्ताएँ हैं।
जितना हम अपनी दिव्यता की ओर अग्रसर होते हैं, सूक्ष्म जगत की नकारात्मक आसुरी शक्तियाँ उतनी ही प्रबलता से हम पर अधिकार करने का प्रयास करती हैं। उन आसुरी जगत की शक्तियों के प्रभाव से हम जीवन में कई बार न चाहते हुए भी एक पशु की तरह आचरण करने लगते हैं, और चाह कर भी पतन से बच नहीं पाते। ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए?
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आग लगने पर कुआँ नहीं खोदा जा सकता, कुएँ को तो पहिले से ही खोद कर रखना पड़ता है। अपने समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में करें। लोभ, कामुकता, अहंकार, क्रोध, प्रमाद व दीर्घसूत्रता जैसी वासनायें हमें नीचे गड्ढों में गिराती हैं, जिन से बचने के किए हमें अपनी चेतना, विचारों, व चिंतन के स्तर को अधिक से अधिक ऊँचाई पर रखना चाहिए।
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रात्री को सोने से पहिले ईश्वर का कीर्तन, भजन, जप, और ध्यान आदि करके उसी तरह सोयें जैसे एक शिशु निश्चिंत होकर अपनी माँ की गोद में सोता है। प्रातःकाल उसी तरह उठें, जैसे एक शिशु अपनी माँ की गोद में निश्चिंत होकर उठता है। दिन का आरंभ भी ईश्वर के कीर्तन, भजन, जप, ध्यान आदि से करें। पूरे दिन परमात्मा को अपनी स्मृति में रखें। ईश्वर स्वयं ही हमारे माध्यम से सारे कार्य कर रहे हैं।
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आप सब को नमन !! मैं आप सब के साथ एक हूँ, एक क्षण के लिए भी पृथक नहीं हूँ।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२४
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