Wednesday, 7 May 2025

भगवान का एकमात्र निवास हमारा हृदय है, हम भी सदा उनके हृदय में ही निवास करें ---

 भगवान का एकमात्र निवास हमारा हृदय है, हम भी सदा उनके हृदय में ही निवास करें ---

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पता नहीं क्यों कल रात्रि में हृदय में बहुत ही अधिक व्याकुलता और पीड़ा थी। नींद भी नहीं आ रही थी। जब पीड़ा असह्य हो गई तब उठ कर श्रीमद्भगवद्गीता के १५वें अध्याय "पुरुषोत्तम-योग" का स्वाध्याय करने लगा। सारा ध्यान १५वें श्लोक पर अटक गया --
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् -- मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
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अब बापस पिछले तीन श्लोकों पर गया --
"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५:१२॥"
"गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५:१३॥"
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
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एक ऊहापोह यानि अनिश्चय की स्थिति चल रही थी, और मन में अनेक तरह के तर्क-वितर्क, और द्वन्द्वात्मक विचार चल रहे थे। वह ऊहापोह शांत हुआ तो हृदय की पीड़ा भी शांत हुई।
यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, वह वस्तुत मुझ चैतन्य स्वरूप का ही प्रकाश है। इसी प्रकार चन्द्रमा और अग्नि के माध्यम से व्यक्त होने वाला प्रकाश भी मेरी ही विविध प्रकार की अभिव्यक्ति है।
जो चैतन्य सूर्य में प्रकाश तथा उष्णता के रूप में व्यक्त होता है, वही चैतन्य पृथ्वी में उसकी उर्वरा शक्ति और जीवन को धारण करने वाली गुप्त पौष्टिकता के रूप में व्यक्त होता है।
हमारे उदर में वे वैश्वानर अग्नि हैं, जो प्राण और अपान वायु से संयुक्त होकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य -- चार प्रकार के अन्नों को पचाता है। वैश्वानर अग्नि खाने वाला है, और सोम खाया जानेवाला अन्न है। यह सारा जगत् अग्नि और सोम स्वरूप है।
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जिस विचार से मेरी पीड़ा शांत हुई वह यह था कि भगवान का ही एकमात्र अस्तित्व है। वे ही यह "मैं" बन गए हैं। मेरी चेतना में उनका अभाव ही मेरी पीड़ा है। वे ही समस्त ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता हैं। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती में कोई पीड़ा नहीं हो सकती। मेरा एकमात्र निवास स्थल परमात्मा का हृदय है, अन्य कोई मेरा ठिकाना नहीं है। परमात्मा के हृदय का केंद्र सर्वत्र है,लेकिन परिधि कहीं भी नहीं। जैसे उनका हृदय सर्वव्यापी है, वैसे ही मेरी चेतना भी परमात्मा के साथ साथ सर्वत्र व्याप्त है। भगवान सच्चिदानंद हैं, उन्हें कोई पीड़ा नहीं हो सकती। ॐ ॐ ॐ !!
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आध्यात्म में हृदय शब्द का अर्थ ---
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चैतन्य रूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द का अर्थ शारीरिक हृदय नहीं है। करुणा, प्रेम, क्षमा, उदारता जैसे अनेक गुणों से सम्पन्न मन को ही आध्यात्म में हृदय कहते हैं। हमारा शांत, प्रसन्न, सजग और जागरूक मन ही हृदय कहलाता है, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है।
हमारी सब घनीभूत पीड़ाओं का कारण हमारे हृदय में परमात्मा का अभाव है। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती ही आनंद है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२४

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