हम जप करें तो किसका जप करें? ---
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को यज्ञों में जपयज्ञ बताया है -- "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" (मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ)। भगवान कहते हैं --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||१०:२५||
अर्थात् - "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ॥"
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अग्नि पुराण के अनुसार --
"जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः।
तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥"
अर्थात् -- ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं।
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अतः सबसे बड़ा यज्ञ -- "जपयज्ञ' है। इस से बड़ा दूसरा कोई यज्ञ नहीं है। इस में हम अपनी स्वयं की ही हवि शाकल्य बन कर, स्वयं ही श्रुवा बन कर, स्वयं की ही ब्रह्मरूप अग्नि में, स्वयं ही ब्रह्मरूप कर्ता बन कर हवन करते हैं। हमारा गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
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कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है। जितना हम सूक्ष्म में जाते हैं उतना ही समष्टि का कल्याण कर सकते हैं। वाणी के चार क्रम हैं -- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। उससे पूर्व मन में जो भाव आते हैं, वह मध्यमा वाणी है। मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है। और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है।
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साधनाकाल के आरंभ में जप वाणी द्वारा बोलकर ही होता है, फिर मौन में। हरिःकृपा से शनैः शनैः आज्ञाचक्र से सहस्त्रार, फिर सहस्त्रार से परे अनंत विस्तार में, और अनंत विस्तार से भी परे "परमशिव" में होता है। वहीं क्षीरसागर है जहाँ भगवान नारायण का निवास है। जब उनकी और भी अधिक कृपा होगी तब वे इस से भी परे ले जाएँगे। परमात्मा की कृपा पर ही सब निर्भर है, स्वयं के प्रयासों पर नहीं। प्रयास वे ही करवाते हैं, और यथार्थ में करते भी वे स्वयं ही हैं।
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"सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥१८:६४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! जय गुरु !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०२४
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