हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य -- धर्म की संस्थापना है, अन्य कुछ भी नहीं। ईश्वर भी अवतार लेते हैं तो धर्म की संस्थापना के लिए ही लेते हैं। हम शाश्वत आत्मा हैं, जिसका स्वधर्म -- निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति है। उसी के लिए हम साधना करते हैं। परमात्मा तो हमें सदा से ही प्राप्त हैं, लेकिन माया का एक आवरण हमें परमात्मा का बोध नहीं होने देता। जब उस आवरण को हटाने का प्रयास करते हैं तो कोई न कोई विक्षेप सामने आ जाता है। इस आवरण और विक्षेप से मुक्त हुए बिना परमात्मा का बोध नहीं होता। माया के इस आवरण और विक्षेप को हटाना ही ईश्वर की प्राप्ति है। निज जीवन में यही धर्म की संस्थापना है। अवतृत होकर ईश्वर इस कार्य को एक विराट स्तर पर करते हैं। यहाँ मैं गीता के पाँच श्लोक उद्धृत कर रहा हूँ, जो हरिःकृपा से इस विषय को समझाने के लिए पर्याप्त हैं ---
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