भगवान ने गीता और रामायण में जब इतने बड़े शाश्वत वचन दिये हैं तब और क्या चाहिए ?
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
"ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् --
"मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥"
"यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥"
"हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है, और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥"
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वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम कहते हैं --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥६-१८-३३॥"
अर्थात् --
जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है॥
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अब भगवान को शरणागति द्वारा समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प मेरे पास नहीं है। उनकी जय हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२४
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