Monday, 23 June 2025

भगवान को पाने की पात्रता (qualification for God-realization) क्या है? ---

भगवान को पाने की पात्रता (qualification for God-realization) क्या है? ---
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गीता में भगवान कहते हैं --
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८:५६॥"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८:५७॥"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
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इनके अर्थ का स्वाध्याय, मनन और निदिध्यासन आप स्वयं करें। किसी ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय, सिद्ध आचार्य के सान्निध्य में गहन उपासना भी करनी होगी, तभी हरिःकृपा से यह संभव हो पाएगा।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
कृपा शंकर
२३ जून २०२२

अहंकार और ब्रह्मभाव में क्या अंतर है? --- .

 अहंकार और ब्रह्मभाव में क्या अंतर है? ---

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हम परमात्मा के अंश, परमात्मा के अमृतपुत्र, और सच्चिदानंद के साथ एक हैं। यह होते हुए भी स्वयं को यह शरीर समझते हैं, यही हमारा अहंकार है।
शरीर के धर्म हैं -- भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि। प्राणों का धर्म है -- बल आदि। मन का धर्म -- है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि। चित्त का धर्म है -- वासनाएँ आदि। इन सब को अपना समझना अहंकार है।
'अहं' केवल सर्वव्यापि 'आत्म-तत्व' का नाम है जिसे हम नहीं समझते इसलिए अपने शरीर, मन और बुद्धि आदि को ही हम स्वयं मान लेते हैं। यही अहंकार है।
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कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-चेतना से युक्त जब कोई महात्मा - "शिवोSहम् शिवोSहम् अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है, तब यह उसकी अहंकार की यात्रा यानि कोई ego trip नहीं है। यह उसका वास्तविक अंतर्भाव है। अहं ब्रह्मास्मि' यानि मैं ब्रह्म हूँ, यह कहना कोई अहंकार नहीं है। अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना।
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आत्मा का धर्म है ... परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम। यही हमारा स्वधर्म है। परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर कह सकते हैं -- शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि॥
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यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। आप सब निजात्माओं को मेरा नमन।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ जून २०२२

त्रिभंग मुद्रा ---

 त्रिभंग मुद्रा ---

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भगवान श्रीकृष्ण की जहाँ भी आराधना होती है, उनका विग्रह "त्रिभंग मुद्रा" में होता है। इसे "त्रिभंग मुरारी मुद्रा" भी कहते हैं। इसके पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य है। तीन -चार वर्ष पूर्व मैंने इस विषय पर एक लेख भी लिखा था, लेकिन मुझे उस लेख से बिलकुल भी संतुष्टि नहीं मिली थी। दुबारा फिर लिखने की इच्छा थी, पर कभी लिख नहीं पाया। अब और लिख भी नहीं पाऊँगा। मैंने मुंडकोपनिषद, दुर्गासप्तशती, देवीअथर्वशीर्ष, और कुछ अन्य ग्रन्थों के संदर्भ भी दिये थे। यह अज्ञान की तीन ग्रंथियों -- ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि, और रुद्रग्रंथि के भेदन का प्रतीक है, जो क्रमशः मूलाधारचक्र, अनाहतचक्र और आज्ञाचक्र में होती हैं। नवार्ण -मंत्र का जप, और षटचक्रों में भागवत मंत्र का जप भी एक विशेष गोपनीय विधि से इसमें होता है। इसका ज्ञान कई महात्माओं को होता है, लेकिन वे इसकी चर्चा अपनी गुरु-परंपरा से बाहर नहीं करते।
इस लेख से हो सकता है साधकों में कुछ जिज्ञासा जगे, और वे इस विषय पर स्वाध्याय और सत्संग द्वारा ज्ञान प्राप्त करे। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन!!
ॐ तत्सत्
कृपा शंकर
२३ जून २०२२

अंतःस्फोट (Implosion) से पाँच अरबपतियों की मूर्खतापूर्ण दुःखद मृत्यु ---

 अंतःस्फोट (Implosion) से पाँच अरबपतियों की मूर्खतापूर्ण दुःखद मृत्यु ---

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समुद्र की गहराइयों में जब नीचे उतरते हैं तो प्रति १० मीटर की गहराई पर "१ किलोग्राम सेंटीमीटर स्क्वेयर" दबाव बढ़ जाता है। फिर सूर्य की किरणें भी इससे अधिक नीचे नहीं जा सकतीं। नीचे अंधकार ही अंधकार और भयंकर ठंड होती है। ऐसे में करोड़ों रुपये खर्च कर, निज प्राणों को संकट में डाल कर, लगभग 4 किलोमीटर नीचे डूबे हुए "टाइटेनिक" नाम के जहाज के मलबे को देखने जाना कोई Adventure नहीं, बल्कि मूर्खता का काम Misadventure ही है।
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दशकों पूर्व नेशनल ज्योग्राफिक संस्था ने रोबॉट्स भेजकर बहुत स्पष्ट और शानदार चित्र टाइटेनिक के मलवे के लिए थे जो उनकी पत्रिका में भी छपे थे। वे चित्र मैंने भी दशकों तक संभाल कर रखे थे। अब पता नहीं कहाँ गये।
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युद्ध में काम आने वाली पण्डुब्बियों का Pressure Hull अधिक से अधिक ५०० मीटर तक की गहराई तक जाने योग्य ही बनाया जाता है। इससे नीचे पनडुब्बियाँ नहीं जातीं, अन्यथा पानी के दबाव से अंतःस्फोट हो जाएगा और पनडुब्बी तो डूबेगी ही, सारे लोग भी मर जाएँगे। लेकिन यह एक विशेष पनडुब्बी थी जो चार किलोमीटर की गहराई तक जा सकती थी। इसमें विशेष उपकरणों की सहायता से कुछ मलवा दिखा कर बापस ले आते।
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किसी भी विस्फोट में जब मलवा बाहर की ओर जाता है, उसे Explosion कहते हैं। जब मलवा भीतर की ओर आता है उसे Implosion कहते हैं। यह विशेष यात्री पनडुब्बी, पानी के दबाव से Implode हुई और चारों अरबपति यात्री और पनडुब्बी का मालिक जो कप्तान और गाइड भी था, मारे गये। यह उनकी कर्मानुसार गति थी।
२३ जून २०२३

Saturday, 21 June 2025

गहराई से "योग" का अर्थ, जिस पर हम प्रायः चर्चा नहीं करना चाहते ---

 गहराई से "योग" का अर्थ, जिस पर हम प्रायः चर्चा नहीं करना चाहते ---

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हमारे जीवन में अंधकार है तो इसका एकमात्र कारण हमारा तमोगुण है। जीवन में प्रकाश सतोगुण से है, और कर्मठता रजोगुण से है। जब हमें निमित्त बनाकर सब कुछ भगवान स्वयं कर रहे हैं, तो हमारे लिए उन को समर्पित होने से अतिरिक्त अन्य कुछ भी करने योग्य नहीं है। उनके त्रिगुणात्मक संसार से हमने दिल लगाकर देख लिया है, जिससे निराशा, छल-कपट और धोखा ही धोखा मिला।
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भगवान हमें सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण, इन तीनों गुणों से परे जाने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित, और आत्मवान् बनो॥
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भगवान हमें "निस्त्रेगुण्य" (त्रिगुणातीत) होने को कहते हैं, लेकिन यह भी बता रहे हैं कि उसके लिये पहले हमें "निर्द्वन्द्व" "नित्यसत्त्वस्थ" "निर्योगक्षेम" और "आत्मवान्' होना होगा।
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इनका अर्थ इस तरह किया है --
(१) निर्द्वंद्व -- सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित होना होगा।
(२) नित्यसत्त्वस्थ -- का अर्थ है कि सदा सत्त्वगुण के आश्रित हों।
(३) निर्योगक्षेम -- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याण मार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहने वाला हो।
(४) आत्मवान् -- अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
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भगवान आगे कहते हैं --
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात् -- हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥
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आचार्य शंकर ने इस मंत्र की बहुत सुंदर व्याख्या की है। उन्हीं के शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ --
यदि कर्मफल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहियें, तो फिर किस प्रकार करने चाहियें? इस पर भगवान यहाँ प्रकाश डालते हैं -- "ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों", -- इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़कर कर कर्म कर। हे धनंजय, योग में स्थित होकर केवल ईश्वर के लिय ही कर्म कर। फलतृष्णारहित पुरुष द्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर।
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वह कौन सा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करने के लिये कहा है ---
यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं। गीता में कर्म, भक्ति, और ज्ञान -- सिर्फ इन तीन विषयों पर ही भगवान ने उपदेश दिये हैं। इन तीनों विषयों में ही उन्होंने सारे सनातन धर्म को लपेट लिया है। कर्मयोग का सार है --"समत्व"। इस परिप्रेक्ष्य में समत्व ही योग है, और यह "समत्व" ही गीता का सार है। समत्व में स्थित होकर ही हम निष्त्रैगुण्य यानि त्रिगुणातीत हो सकते हैं। यही जीवन का सार है। भगवान श्रीकृष्ण को "वासुदेव" इसीलिए कहते हैं कि वे सर्वत्र समभाव में स्थित हैं।
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मुझे जैसा समझ में आया, वैसा ही मैंने यहाँ लिख दिया। भगवान की कृपा के अतिरिक्त मुझ में कोई अन्य क्षमता नहीं है। उनकी कृपा पर ही आश्रित हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२४

एक विचित्र सी बहुत गहन तड़प मेरे हृदय में लंबे समय से है ---

 एक विचित्र सी बहुत गहन तड़प मेरे हृदय में लंबे समय से है। उस तड़प में पीड़ा भी है और व्याकुलता भी। पहले तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उस का कारण समझने का पूर्ण प्रयास किया तो समझ में आया कि तमोगुण के प्रभाव से मैं कुछ भूल कर रहा हूँ, यह उस को सुधारने का प्रकृति द्वारा दिया हुआ एक संदेश है। पूरी बात समझ में आ गयी है। यह भूल अब और नहीं होगी।

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"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विशावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥
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"अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥४:६॥"
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥४:७॥"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४:८॥"
"जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥४:९॥"
"वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥४:१०॥"
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"वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥"
"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विशावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
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ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२२ जून २०२४

अब जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया है ---

अब जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया है। मेरे पास समय और स्थान की कोई कमी नहीं है। जीवन अनंत है। कहीं भी जीवन का अंत नहीं है। समय ही समय है। परमात्मा का सारा समय मेरा ही समय है। इस पृथ्वी ग्रह से ही बंधा हुआ मैं नहीं हूँ। सारा ब्रह्मांड और सारी अनंतता मेरा ही विस्तार है। अब आने वाला सारा समय परमात्मा को समर्पित है।

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भगवान सच्चिदानंद हैं। उनके साथ खूब सत्संग करेंगे। जितनी इस शरीर की क्षमता है, उसके अनुसार यात्राएं भी करेंगे। अनेक प्रेमी तपस्वी साधु-संतों और सत्संगी मित्रों से भी मिलेंगे, व उनका सत्संग लाभ लेंगे।
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जीवन में आनंद ही आनंद है। कहीं कोई कमी नहीं है। शास्त्रों में जिस भूमा-तत्व की बात बताई गयी है, वह प्रत्यक्ष रूप से अब समक्ष है। परमात्मा से ही एकमात्र संबंध रह गया है। उन्हीं से अब सारा व्यवहार है, अन्य किसी से नहीं। जिस विमान से यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, उसके पायलट स्वयं भगवान वासुदेव हैं। यह विमान भी वे ही हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२३

भगवान का स्पष्ट आदेश ---

 भगवान का स्पष्ट आदेश ---

अब तक अपनी सब कमियों के लिए मैं अपने विगत कर्मों (कर्मफलों) को दोष देता था। करुणावश भगवान से रहा नहीं गया। आज उन्होने व्यक्तिगत रूप से गहन ध्यान में मुझे समझा ही दिया कि --
"चिंतन पुरुषार्थ का करो, न कि विगत कर्मों का। पुरुषार्थ करो, तप करो, जीवन में पवित्रता लाओ, एकाग्रता और ध्यान का अभ्यास करो। भूतकाल से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम वही हो जो वर्तमान में हो। भाग्यवादी मत बनो। जड़ता का त्याग करो। मानसिक रूप से वेदान्त-केसरी की तरह निर्भय रहो, और प्रणव का निरंतर जप करो।"
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भगवान ने कृपा कर के यह भी समझा दिया कि --
"लोभ" और "कामनाएँ" ही मेरे पतन का एकमात्र कारण थीं। भावी आध्यात्मिक प्रगति के लिये -- सब तरह के "लोभ" और कामनाओं" से मुझे मुक्त होना पड़ेगा।
अनेक गोपनीय रहस्य भी उन्होने अनावृत किये जो व्यक्तिगत हैं, किसी अन्य को बताये नहीं जा सकते।
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जब तक संतुष्टि न मिले, तब तक भगवान का खूब ध्यान करें। उन्हें अपनी स्मृति में हर समय रखें। जब भी समय मिले भगवान का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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प्रार्थना ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (गीता)
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२५

भगवत्-प्राप्ति की पात्रता किसमें होती है? ---

 (प्रश्न ) : भगवत्-प्राप्ति की पात्रता किसमें होती है?

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(उत्तर ) : अपनी परमकृपा करके श्रीमद्भगवद्गीता के मोक्षसंन्यास-योग नामक १८वें अध्याय में उपरोक्त प्रश्न का उत्तर पाँच श्लोकों में अकारणकरुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण देते हैं --
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
अर्थात् --
विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर -- विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित -- अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है। --- ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है --- (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है॥
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सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने लिए जो "मैं" शब्द का प्रयोग करते हैं, वह अपने परमात्म स्वरूप की दृष्टि से ही कहते हैं; वसुदेव के पुत्र के रूप में नहीं। अत जब वे कहते हैं वह (साधक) मुझमें प्रवेश करता है, तब उसका अर्थ किसी गृह में प्रवेश के समान न होकर साधक की आत्मानुभूति से है। हरिः ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
२२ जून २०२५

वह परिवर्तन हम स्वयं हैं जो विश्व में होते हुए देखना चाहते हैं ---

 वह परिवर्तन हम स्वयं हैं जो विश्व में होते हुए देखना चाहते हैं ---

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नित्य नियमित परमात्मा का ध्यान करें, सिर्फ बातों से कुछ नहीं होगा। स्वयं में परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति को करना होगा। अन्धकार का सकारात्मक प्रतिकार निरंतर होना चाहिये। कोई भी योजना या संकल्प तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक हम स्वयं ध्यान साधना न करें। पूरे विश्व में उथल-पुथल हो जाये, या सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, हमारे ह्रदय में शान्ति बनी रहनी चाहिये। यह शांति ध्यान-साधना द्वारा ही संभव है। जीवन की सारी समस्याओं का समाधान ध्यान साधना द्वारा ही संभव है। ध्यान साधना में जागृत परमात्मा की शक्ति ही सृष्टि की धारा को बदलने में पूर्णतः सक्षम है।
ॐ तत्सत्। ॐ शिव। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२२ जून २०१७

Friday, 20 June 2025

अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस की शुभ कामनाएँ :---

 अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस की शुभ कामनाएँ :---

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बिना ब्रह्मचर्य के कोई योगी नहीं हो सकता। योग है -- कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर परमशिव से मिलन। बिना ब्रह्मचर्य का पालन किए कोई कुंडलिनी जागरण का प्रयास करेगा, तो उसका मष्तिष्क निश्चित रूप से विक्षिप्त होगा, और वह स्थायी मनोरोगी हो जाएगा।
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खेचरी-मुद्रा को सिद्ध किए बिना योग में सिद्धि नहीं मिलती। इसके लिए योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने तालव्य क्रिया का अभ्यास बताया था। इसमें जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर एक झटके के साथ बाहर की ओर फेंक देते हैं। बार-बार यह अभ्यास किशोरावस्था से ही सिखाना चाहिए। साथ साथ जीभ के अगले भाग को सूती कपड़े से पकड़ कर दिन में तीन-चार बार धीरे धीरे बिना किसी कष्ट के खींच कर लंबी करने का अभ्यास करना चाहिए। खेचरी का यह तो है भौतिक पक्ष। दूसरा है मानसिक पक्ष जो एक जन्म में सिद्ध नहीं होता। यह है आकाश में विचरण। एक सिद्ध योगी इस भौतिक शरीर की चेतना से बाहर निकल कर आकाश में ही ध्यानस्थ होता है, और आकाश में विचरण कर के इस देह में बापस आ जाता है। यह खेचरी की सिद्धि है। जो खेचरी नहीं कर सकते वे अर्ध-खेचरी का अभ्यास करें। साधना के समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटाकर रखें।
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क्रिया-योग के अभ्यास से कुंडलिनी का जागरण होता है। लेकिन इसका अभ्यास गुरु के मार्गदर्शन में ही होना चाहिए। योग में सिद्धि के लिए एक स्वस्थ शरीर, योग-क्रियाओं का ज्ञान, मन में लगन, भक्ति और अभीप्सा चाहिए। हठ योग का ज्ञान और अभ्यास -- अन्य योगों की साधना के लिए आवश्यक है। हठयोग के तीन ही प्रामाणिक ग्रंथ हैं --
(१) घेरण्ड संहिता, (२) हठयोग प्रदीपिका, और (३) शिव-संहिता।
इन्हीं का विस्तार अन्य हजारों पुस्तकें हैं। पातंजलि के 'योगदर्शन' का स्वाध्याय बाद में या साथ-साथ करें।
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वैसे योग साधना का आरंभ यजुर्वेद के कृष्ण-यजुर्वेद भाग से हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद का स्वाध्याय उन सब को करना चाहिए जो योगी बनना चाहते हैं। अन्य भी ज्ञात-अज्ञात अनेक उपनिषद हैं। मेरे लिए तो श्रीमद्भगवद्गीता - योग का सर्वोच्च ग्रंथ है।
पुनश्च आप सब को मंगलमय शुभ कामना। भगवान की परम कृपा सभी पर हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२३

कई साधक शिकायत करते हैं कि उनकी साधना नहीं हो रही है ---

 कई साधक शिकायत करते हैं कि उनकी साधना नहीं हो रही है।

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यदि साधना में किसी भी तरह का व्यवधान है तो एक बार तो एकांत में मौन होकर खूब जप-यज्ञ करें। कोई दिखावा न करें, यह साधक के और साध्य के मध्य का निजी मामला है। फिर चलते-फिरते, सोते-जागते, हर समय निरंतर अपना जप करते रहें। औपचारिक रूप से भी यह एक नियम बना लीजिये कि न्यूनतम इतनी मात्रा में इतना जप तो नित्य करना ही है। उस संकल्प पर दृढ़ रहें।
गीता में भगवान कहते हैं --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् - "महर्षियोंमें मैं भृगु हूँ, वाणीसम्बन्धी भेदोंमें -- पदात्मक वाक्यों में एक अक्षर -- ओंकार हूँ, यज्ञों में जपयज्ञ हूँ, और स्थावरों में अर्थात् अचल पदार्थों में हिमालय नामक पर्वत हूँ।"
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जो साधक हैं वे तो मेरी बात को समझते हैं। और कोई न समझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और आशीर्वचन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२२

अंतर्राष्ट्रीय "योग-दिवस" पर सभी का अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ !

 अंतर्राष्ट्रीय "योग-दिवस" पर सभी का अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ !

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आध्यात्मिक दृष्टि से योग है अपने अहंभाव का परमात्मा में पूर्ण विसर्जन, यानि जीवात्मा का परमात्मा से मिलन ! हठयोग तो उसकी तैयारी मात्र है, क्योंकि साधना के लिए चाहिए एक स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन।
तंत्र की भाषा में योग है -- कुण्डलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन।
मार्ग है -- परमप्रेम और उपासना।
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जितना आवश्यक हो उतना ही स्वाध्याय करो, अधिक नहीं | यानि पढो पर सिर्फ प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही | अधिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है।
खूब ध्यान करो। ध्यान के लिए शक्तिशाली देह, दृढ़ मनोबल, प्राण ऊर्जा और आसन की दृढ़ता चाहिए। साथ-साथ परमात्मा से परमप्रेम, और शुद्ध आचार-विचार भी चाहिए।
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किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध आचार्य योगी से प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा के साथ साथ ध्यान की विधि सीख लें। प्रभु कृपा से यम-नियम अपने आप सिद्ध हो जायेंगे।
योग मार्ग में सर्वप्रथम और सबसे महत्व पूर्ण सिद्धि है -- "अंतःकरण की पवित्रता"। अंतःकरण पवित्र होगा तभी ह्रदय में प्रभु आयेंगे।
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सर्वदा निरंतर परमात्मा का चिंतन करो। हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखो। सबसे बड़ी आवश्यकता भगवान की भक्ति है जिसके बिना कोई योगी नहीं हो सकता। जिनके एक भृकुटी विलास मात्र से हज़ारों करोड़ ब्रह्मांडों की सृष्टि, स्थिति और विनाश हो सकता है, वे जब आपके ह्रदय में होंगे तो क्या संभव नहीं है।
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ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२२

सनातन हिन्दू धर्म सनातन और शाश्वत है ---

 सनातन हिन्दू धर्म सनातन और शाश्वत है ---

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सनातन धर्म स्वयं परमात्मा द्वारा निर्मित प्रकृति का धर्म है जिसे न तो कोई परिवर्तित कर सकता है, और न कोई नष्ट कर सकता है। सनातन धर्म से ही यह सृष्टि निर्मित हुई है, सनातन धर्म ने ही इसे धारण कर रखा है, और सनातन धर्म से ही इसका संहार होगा। सनातन धर्म है तभी तो सृष्टि का अस्तित्व है। सनातन धर्म नहीं होगा तो यह सृष्टि भी नहीं रहेगी।
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आत्मा शाश्वत है। जब तक जीवात्मा परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो जाती, तब तक उसे कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेना ही पड़ता है। परमात्मा से दूरी दुःख है, और समीपता सुख है। परमात्मा को उपलब्ध होने के साधन श्रुतियों व आगम ग्रन्थों में बताए गए हैं। यही सनातन धर्म का सार है, बाकी सब विस्तार है।
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इस सृष्टि में अपनी तमोगुणी सुविधा, स्वार्थ, लोभ और अहंकार के वशीभूत होकर मनुष्य अपने राजनीतिक साम्राज्यों के विस्तार हेतु अनेक आसुरी मत-मतांतरों, मज़हबों और रिलीजनों की सृष्टि कर लेते हैं। पर उनसे परमात्मा को पाने की अभीप्सा यानि प्यास कभी शांत नहीं होती। उनसे किसी को तृप्ति, संतोष व आनंद भी नहीं मिलता। ये हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं करा सकते। समय के साथ वे आसुरी मत अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं।
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हमें तो अपना उद्धार करना ही है। गीता में भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
अर्थात् -- मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है॥
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श्रुति भगवती कहती है -- "एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय॥"
(​श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/१५).
अर्थात् -- इस ब्रह्मांड के मध्य में जो एक "हंसः" यानि एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है; जल में स्थितअग्नि: है। उसे जानकर ही (मनुष्य) मृत्यु रूप संसार से सर्वथा पार हो जाता है। दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए अन्य मार्ग नही है॥
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गुरुकृपा से इस सत्य को समझते हुए भी, यदि हम परमात्मा को समर्पित न हो सकें तो हमारे जैसा अभागा अन्य कोई नहीं हो सकता। सनातन धर्म की रचना स्वयं परमात्मा ने की है। मनुष्यों के रचे हुये सिद्धान्त नष्ट हो जाएँगे लेकिन परमात्मा का रचा हुआ सनातन धर्म शाश्वत है। जो दूसरों को तलवार से काटते हैं, वे तलवार से ही काटे जाएँगे।
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सनातन हिन्दू धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण होगा। असत्य और अंधकार की शक्तियों का पराभव होगा। भारत माता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान होंगी। हर हर महादेव !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२२

जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही योग-दर्शन है|

जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही योग-दर्शन है|

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जिस मोटर-साइकिल (मनुष्य-देह) पर हम यात्रा कर रहे हैं, वह भी अच्छी हालत में होनी चाहिए|
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ....
Yoga is an art of motorcycle maintenance.
इसे समझ कर ही हम आगे की बात समझ सकेंगे| यह मूलभूत बात है| हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा, परमप्रेम और उपासना ही मेरा स्वधर्म, स्वभाव व जीवन हैै। इसी में सनातनधर्म और राष्ट्र का हित निहित है।
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जिस वाहन पर यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, उस वाहन की क्षमता व हालत अब बिल्कुल भी ठीक नहीं है. सिर्फ दृष्टिकोण बदल गया है. यह वाहन भी "वे" हैं और वाहक भी "वे" ही हैं.
He is the pilot of this aircraft and the fragile aircraft too. .
सभी प्राणियों को मैं नमन करता हूँ, क्योंकि प्राण रूप में स्वयं परम-पुरुष भगवान नारायण उन में उपस्थित हैं।
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ---
ध्रुव उवाच -
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥ - श्रीमद् भागवतम् ४.९.६
अर्थात् -- हे प्रभो! आपने ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर मेरी सोई हुई वाणी को सजीव किया है, तथा आप ही हाथ,पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों को चेतना प्रदान करते हैं। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं।
Prostration to You, O Bhagavān, the supreme Consciousness, possessor of all powers, who, having entered my being, has activated my dormant speech, and likewise has empowered the other organs such as the hands, feet, ears, skin and all the vital forces, by virtue of His mere Presence.

(Re-Edited & Re-Posted) "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते।" (स्कन्द पुराण) ----

 (Re-Edited & Re-Posted) "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते।" (स्कन्द पुराण)

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इसका भावार्थ है कि इस शरीर रूपी रथ में जो सर्वव्यापी सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। यह गुरुकृपा से ही समझ में आने वाला विषय है। परमात्मा को वही प्राप्त करता है जो इस शरीर रूपी रथ में सर्वव्यापी सूक्ष्म आत्मा को अनुभूत करता है।
अपना सम्पूर्ण ध्यान कूटस्थ सूर्य-मण्डल पर केन्द्रित कर के अनंत ब्रह्म में लीन हो जाना ही वास्तविक योगाभ्यास है।
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है। लेकिन वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है, जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति --ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है। तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए। यह स्वयं में एक उत्सव है। ज्योति, नाद व भागवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो। यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है।
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है --
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते॥" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है।
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आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" ग्रंथ के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है। विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है। बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता है। (यह क्रिया-योग साधना का सार है)
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गीता में भगवान कहते हैं --
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब भुवन पुनरावर्ती हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता॥
यह समझ में आ जाये तो सार की सारी बातें समझ में आ जाती है।
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हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमो नारायण !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
आप सब महापुरुषों को नमन !! ॐ स्वस्ति !! ॐ गुरु !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२५

अपने अहंभाव का परमात्मा में पूर्ण विसर्जन ही योग है। आज अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

 अपने अहंभाव का परमात्मा में पूर्ण विसर्जन ही योग है।

आज अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ ---
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आज अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस है। इसके लिए प्रधानामंत्री श्री नरेंद्र मोदी बधाई के पात्र हैं। उन्हीं के प्रयासों से पूरे विश्व में आज अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस मनाया जा रहा है। योग के नाम पर वर्तमान में जो सिखाया जा रहा है है वह हठयोग है। पूरा हठयोग नाथ-संप्रदाय की देन है। इसके उपलब्ध तीन मूल ग्रंथ हैं -- शिव-संहिता, हठयोग-प्रदीपिका, और घेरण्ड-संहिता। हजारों पुस्तकें इन पर लिखी गई हैं। इनके अतिरिक्त और भी कोई ग्रंथ हैं तो मुझे उनका ज्ञान नहीं है। बाबा रामदेव जो हठयोग सिखाते हैं वह सब घेरण्ड-संहिता का ज्ञान है, लेकिन वे श्रेय पातंजलि को देते हैं। पातंजलि ने कहीं भी हठयोग नहीं सिखाया है।
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योग में आध्यात्म भी हैं, तंत्र भी है और हठयोग भी है। योग-साधना का आरंभ कृष्ण-यजुर्वेद से हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद का स्वाध्याय उन सब को करना चाहिए जो योगी बनना चाहते हैं। अन्य भी ज्ञात-अज्ञात अनेक उपनिषद हैं, जिनमें योगिक साधनाओं के बारे में विस्तार से वर्णन है। मेरे लिए तो श्रीमद्भगवद्गीता ही योग का सर्वोच्च ग्रंथ है।
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तंत्र के अनुसार कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है। यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। बिना ब्रह्मचर्य के कोई सिद्ध योगी नहीं हो सकता। खेचरी-मुद्रा की सिद्धि से योग-साधना बड़ी सुगम हो जाती है। खेचरी का दूसरा पक्ष है -- आकाश में विचरण॥ साधना के समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटाकर रखने का भी अभ्यास करें।
क्रिया-योग की साधना में आध्यात्म भी है, तंत्र भी है और हठयोग भी है। तंत्र की दस महाविद्याओं में श्रीविद्या की साधना भी कुंडलिनी जागरण है। यह एक मोक्षदायिनी विद्या है लेकिन इसका दुरुपयोग अधिक हो रहा है।
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सर्वदा निरंतर परमात्मा का चिंतन करो। हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखो। सबसे बड़ी आवश्यकता भगवान की भक्ति है जिसके बिना कोई योगी नहीं हो सकता। जिनके एक भृकुटी विलास मात्र से हज़ारों करोड़ ब्रह्मांडों की सृष्टि, स्थिति और विनाश हो सकता है, वे जब ह्रदय में होंगे तो क्या संभव नहीं है।
आप सब को मंगलमय शुभ कामना। भगवान की परम कृपा सभी पर हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२४

अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस पर संकल्प .....

 अंतर्राष्ट्रीय योग-दिवस पर संकल्प .....

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इधर-उधर की फालतू बातों पर मुझे ध्यान नहीं देना चाहिए| मेरी अंतर्प्रज्ञा मुझे निरंतर चेतावनी दे रही है कि इस मोटर-साइकिल (मनुष्य-देह) का अब कोई भरोसा नहीं है| समय बहुत कम है| आने वाला समय अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है| काम बहुत बाकी है| सत्यनिष्ठा से जो भी समय बचा है उसमें .(१) नित्य नियमित ऊर्जादायी व्यायाम (Energization exercises) करो|
(२) हंसःयोग (अजपा-जप) व नाद-श्रवण द्वारा परमात्मा का अधिकतम ध्यान करो| (३) क्रियायोग उपासना नियमित करो व क्रिया की परावस्था (ब्राह्मी स्थिति) में रहने का नित्य-नियमित वैराग्यपूर्वक अभ्यास करो|
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ब्रह्मरंध्र से बाहर की सर्वव्यापी अनंतता से भी परे परम ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म परमशिव ही मेरे उपास्य हैं| वे ही मेरे इष्ट हैं, वे ही भगवान वासुदेव हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही पारब्रह्म परमेश्वर हैं| उन्हीं में मेरी स्थिति हो| कहीं कोई भेद न हो| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जून २०२०